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द्वितीय खण्ड।



जगतसिंह ने देखा कि यह आपत्ति है बोले, महाराज आप ब्राह्मण हैं मैं राजपूत हूँ आपको ऐसा कहना उचित नहीं। आपका नाम गजपतिविद्यादिग्गज है?

दिग्गज ने कहा, हाय! नाम पूछता है! न जाने क्या विपद पड़े? और हाथ जोड़ कर बोला। 'दोहाई शेखजी की! मैं गरीब हूँ, आप के पैरों पड़ता हूँ।'

जब जगतसिंह ने देखा कि ब्राह्मण इतना डरा है कि उससे कोई कार्य सिद्ध नहीं हो सकता तो बात टाल दूसरा विषय छेड़ बोले— 'आपके हाथ में कौन पोथी है'?

'यह माणिकपीर की पोथी है।'

'ब्राह्मण के हाथ में माणिकपीर की पोथी।'

'जी-जी हाँ, मैं पहिले ब्राह्मण था अब तो ब्राह्मण नहीं हूँ।'

राजकुमार बड़े विस्मयापन्न हुए और बोले 'यह बात क्या? आप मान्दारणगढ़ में नहीं रहते थे?'

दिग्गज ने सोचा अब बहुत बिगड़ी! मेरे धीरेन्द्रसिंह के दुर्ग में रहने का पता लग गया, जो दशा उनकी हुई वहीं मेरी भी होगी और मारे डर के काँपने लगा।

राजकुमार ने कहा, 'हैं क्या हुआ?'

दिग्गज ने हाथ जोड़ कर कहा 'दोहाई खां बाबा की, बाबा मुझको मारो मत, बाबा मैं तुम्हारा गुलाम हूँ।'

'तुम क्या उन्मत्त होगए?'

'नहीं बाबा मैं आपका दास हूँ, मैं सेवक हूँ, मैं तो आपही का हूँ।'

जगतसिंह ने ब्राह्मण को स्थिर करने के लिये कहा 'तुम कुछ चिन्ता न करो, तनिक अपनी माणिकपीर की पोथी तो पढ़ो मैं सुनूँगा।'