सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७६
दुर्गेशनन्दिनी।


मैंने जो तुमसे भेंट नहीं किया उससे मुझको अधीर न समझना नहीं तो मुझको दुःख होगा । उपमान के हृदय में अग्नि जल रही थी मेरे भेंट करने से कदाचित उसको क्लेश होता इसलिये मैंने तुमसे साक्षात नहीं किया । मैंने यह भी नहीं समझा था कि न भेंट करने से तुमको विषाद होगा और अपने दुःख सुख को तो जगदीश्वर के चरण में अर्पण कर चुकी । यदि तुमस साक्षात होता तो भी यह दुःख भोगना ही पड़ता और नहीं हुआ तो भी भोग रही हूं।

फिर यह पत्र क्यों लिखती हूं ? एक बात है इसीलिये लिखा है। यदि तुमने सुना हो कि मैं तुमको चाहती हूँ तो उस बात को अब भूल जाओ। मैंने संकल्प किया था कि इस देह से इस बात का प्रकाश न होगा परन्तु विधना की यही मनो गति थी। अब भूल जाओ । अब मैं तुम्हारी आकांक्षा नहीं रखती । मुझे को जो देना था मैं दे चुकी तुम से मुझको कुछ न चाहिये। मेरा प्रेम तो ऐसा दृढ़ है कि तुम मुझको न भी चाहो तो मैं मुखी हूं किन्तु अब उससे क्या काम है ?

नुमको मैने अमुखी देखा था जब कभी तुमको मुख होय आयेशा को अवश्य स्मरण करना और लिखना । याद इच्छा न हो तो न भी लिखना । क्या कभी आयेशा फिर तुमको स्मरण होगी?

मैंने जो तुमको पत्र लिखा है या फिर कभी लिखू तो लोग दोष देंगे परन्तु मैं दोर्षा नहीं हूँ लोगों के कहने से क्या हो सक्ता है। तुमको जब कभी इच्छा हो पत्र अवश्य लिखियगा।

तुम अब इस देश को छोड़ जात हों परन्तु पठान शान्त नहीं है इससे तुम्हारे फिर इस देश में आने की सम्भावना है पर मुझ से अब भेट नहीं हो सकी । मैंने इसको अपने हृदय