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तिबत

तिबत
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साहस,धैर्य तथा कष्ट-सहिष्णुता का विचार करके चित्त आश्चर्यसागर में डूब जाता है। चार महीने तक असबाब अपनी पीठ पर लाद कर उन को पैदल चलना पड़ा। खाने को सिवा जङ्गली जीवों के मांस के और कुछ उनको नसीब नहीं हुआ। कई महीने उनको मनुष्य-जाति के दर्शन नहीं हुए। परन्तु धन्य है उनके साहस को ! उन्होंने एक बार पामीर और तिबत के कुछ हिस्से में सफर किया था। उस समय ग्यारहवीं बडाल लैंसर्स का शहज़ादमीर नामक दफ़ेदार उनके साथ था। भाग्यवश व्यल्बो साहब को यह दफ़ेदार मिल गया था। उससे उनको बड़ी मदद मिली।

तिबत में चीन का सार्वभौमत्व है ; वह चीन का करद राज्य है। हर साल उसे चीन को कर देना पड़ता है। तिबत का राज्यसूत्र चीन है। चीनियों को छोड़कर तिबत वाले और किसी को अपने देश में नहीं आने देते । तिबत वाले शायद यह समझते है कि अपने से अधिक सज्ञान लोगों को अपने देश में आने देने से वे लोग धीरे धीरे तिवत का आधिपत्य अपने हाथ में कर लंगे।

ईस्ट इंडिया कम्पनी के पहले गवर्नर जनरल हेस्टिंग्ज के समय तक तिबत का बहुत ही कम हाल इस देश वालों को मालूम था। तिबत और हिन्दुस्तान से किसी तरह का सम्बन्ध तब तक न था। परन्तु हेस्टिंग्ज ने रंगपुर के रहने वाले पुरन्दर गिरि नामक संन्यासी को तिबत के प्रधान लामा के पास भेजा। उस संन्यासी ने अपना काम सफलता पूर्वक किया और वहां से सकुशल लौट भी आया। परन्तु तिबत के सम्बन्ध से बाबू शरच्चन्द्र दास ने, इस समय, बहुत