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नेपाल

भी राज्य छीन लिया और रणबहादुर-शाह ने नेपाली राज्य को कुमाऊं तक बढ़ाया। १७९२ ईसवी में नेपालियों ने तिबत पर चढ़ाई की,पर चीन वालों ने उन्हें वहाँ से भगा दिया। इस चढ़ाई में उन्हें बहुत हानि उठानी पड़ी और अनेच आपदाओं का सामना करना पड़ा। तभी से नेपाल वाले चीन को कर देने लगे। यह कर उन्हें अब तक देना पड़ता है। उस समय तिबत वालों ने भी अंगरेज़ों से मदद मांगी थी और नेपाल वालों ने भी;पर इस्ट इण्डिया कम्पनी ने मदद नहीं दी। यदि देती तो इस समय नेपाल और तिबत की हालत और की और हो हो गई होती:नेपाल की राजगदी के कारण अनेक बार मार काट हुई है। सच पूछिए तो मन्त्री ही वहाँ का राजा है। इस लिए मन्त्री होने के लिए अनेक खून-खरानियाँ हुई हैं और कितने ही लोगों को देश छोड़कर हिन्दुस्तान में भाग आना पड़ा है।

गीर्वाण शुद्ध विकम-शाह के समय में गोरखा लोगों ने किर नेपाल की सीमा का बढ़ाना आरम्भ किया। पश्चिम में वे कांगड़ा तक पहुंच गये और पूर्व में सिकम लक। उन्होंने अंगरेजी राज्य पर भी आक्रमण किया। इसका फल यह हुआ कि १८१४ ईसवी में नेपाल के साथ अंगरेजों का युद्ध ठन गया। इस युद्ध में पहले अँगरेजों को बहुत तकलीफें उठानी पड़ीं। उनकी सेना का भी बहुत नाश हुआ और उनके कई बड़े बड़े अफसर भी मर गये ! पर पीछे से उनकी कामयावी हुई और अँगरेजों का जितना देश नेपा- लियों ने जीता था उसमें से बहुत सा उन्होंने लौटा दिया । नेपाल के साथ अँगरेजों की पहले दो तीन सन्धियाँ हो चुकी थीं। पर वे नाम मात्र ही के लिये