विलायत से लौटने पर लोगों ने उन पर यह दोष लगाया कि समुद्र पार जाने से वे धर्मच्युत हो गये । इससे वे मन्त्री होने लायक नहीं रहे। इन दोषारोपण करने वालों में जङ्गबहादुर के दो भाई भी थे- एक सगे,एक चचेरे । इसमें महाराजाधिराज के एक भाई भी शामिल थे। ये लोग नेपाल से हटा दिये गये और इलाहाबाद में आकर रहने लगे। पर १८५३ ईसवी में उनको नेपाल लौट जाने की आज्ञा मिल गई। १८५७ ईसवी के सिपाही-विद्रोह में जङ्गबहादुर ने बहुत सी फौज भेज कर अँगरेज़-राज की मदद की। इसके उपलक्ष में गवर्नमेंट ने तराई का एक हिस्सा नेपाल को दे दिया और जंगबहादुर को जी० सी० बी० की पदवी से विभूषित किया। १८७३ ईसवी में वे जी० सी० एस० आई० बनाये गये। १८७७ में जंगबहादुर की मृत्यु हुई। अपने समय तक यही एक ऐसे मन्त्री हुए जिनकी स्वाभाविक मृत्यु हुई। महाराज जंगबहादुर के ज्येष्ठ पुत्र जनरल पद्मजङ्ग इस समय प्रयाग में रहते हैं।
१८७५ ईसवी में राजराजेश्वर सातवें एडवर्ड सैर के लिए हिन्दु- स्तान आये थे। उस समय आप "प्रिंस आव वेल्स” कहलाते थे। आपने नेपाल की तराई में शिकार खेला था। शिकार का सब प्रबन्ध महाराज जङ्गबहादुर ने खुद किया था। वे प्रिंस से मिलने आये थे उनके आतिथ्य से प्रिंस बहुत प्रसन्न हुए थे।
महाराज जङ्गबहादुर का शंखे लामा नामक एक योगी पर बहुत प्रेम था। इस योगी को ब्रजोली मुद्रा सिद्ध थी। वह अपने शिश्न से शंख बजा सकता था और उसी मार्ग से कटोरा भर दूध चढ़ा लेता था