चरखारी छोड़कर मेले के स्थान में जा रहता है। यह स्थान चरखारी से मिला हुआ है। स्वयं महाराजा साहब मेले में जाकर अपने खेमे लगवाते हैं और वहीं रहते हैं। यह मेला कोई एक महीना रहता है । जङ्गल में मङ्गल हो जाता है । इस मेले में इतनी चौकसी रक्खी जाती है कि आज तक कभी किसी की एक सुई तक नहीं गई। जो लोग बाहर से मेले में जाते हैं उनका महाराजा साहब की तरफ से यथेष्ट आतिथ्य किया जाता है। सुनते हैं,महाराजा साहब के पिता,राव बहादुर जुझारसिंह जू-देव, सी० आई० ई०,दीवान बहादुर,ने पहले पहल इस मेले की नीव डाली थी।
महाराजा साहब के पिता बड़े ही योग्य दीवान हैं । आपका जन्म १८८४ ईसवी का है। राजनीति में आप इतने प्रवीण हैं कि बुंदेलखण्ड भर में शायद ही और कोई इस विषय में आपकी बराबरी कर सकता हो। आप के पुत्ररत्न, वर्तमान महाराजा चरखारी,जबतक नाबालिग थे, आप दरबार के सीनियर मेम्बर थे। राज्य का सूत्र आप ही के हाथ में था। आपने सब काम इस योग्यता से चलाया कि गवर्नमेंट ने खुश होकर आपको दोवान बहादुर की पदवी दी। यह बात १८८७ की है। इसके आठ वर्ष बाद, अर्थात् १८९५ में, आपको सी० आई० ई० का खिताब मिला। गद्दी मिलने पर-सारे राजाधिकार प्राप्त होने पर-महाराज साहब ने राव साहब को अपना मदारुलमुहाम अर्थात् प्रधान दीवान बनाया। इसी पद पर आप तब से अधिष्ठित हैं और राज्य में उपयोगी सुधार करने और प्रजा को सुखी रखने के लिये हमेशा यत्नवान रहते हैं।