पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१५

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Tara उठाते। शरणागत की रक्षा करते हैं। इससे खत्री जी के उपन्यास अपना नैतिक धरातल वनाए रहते हैं और ये उपन्यास कोरा मनोरंजन से ऊपर दीखने लगते हैं। स्त्री-पुरुषों के वर्णन चित्रस्थूल, श्रृंगारी और सजावट युक्त हैं। शरीर की सुन्दरता के साथ ही गहनों की भरमार है। इसलिए कि अधिकतर स्त्री-पुरुष सम्पन्न परिवारों के हैं। मिर्जापुर के जंगलों में निरावरित आदिवासी सौंदर्य भी है। धूप, पानी और हवा के झटकों से ठोस सौंदयं भी है। इसका खत्री जी को बिल्कुल पता नहीं है। इन जंगलों में घूमकर भी वे राज घरानों से ही जुड़े हैं। जंगल का उन्होंने मुख्यतः उद्दीपन और लुकने-छिपने के लिए प्रयोग किया है। खत्री जी की कथा का इतना प्रचार इसलिये भी हुआ कि उस समय का पाठक समुदाय किसी न किसी रूप में उर्दशिक्षित था। भापा और भाव दोनों में उसकी मानसिकतावनी थी। उर्दू गद्य हिंदी गद्य से पूर्ववर्ती है । बहुतों ने खत्री जी का अनुकरण भी किया। किन्तु वे सफल न हो सके । इसलिये कि वे अनुकरण थे। अतः उनमें वह रंग न आ सका। स्थितियाँ भी बदल गयी थीं। धीरे-धीरे स्पष्ट और तीन सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं ने घेरा डाल दिया । जैसा कि रुद्र काशिकेय ने कहा है-'खत्री जी के तिलिस्मी रास्ते के जितने पथिक हुए उनमें श्री हरिकृष्ण जौहर को आचार्य शुक्ल जी ने विशेष उल्लेखयोग्य' बताया है। संभवतः श्री निहालचंद वर्मा की कृति उनकी नजरों से नहीं गुजरी थी । अन्यथा जोहर जी के साथ ही वे वर्मा जी का भी नामोल्लेख अवश्य करते क्योंकि श्री देवकीनंदन का अनुकरण करने वालों में सफलता इन्हीं दोनों को मिली थी।' -(बाबू देवकीनंदन खत्री स्मृति ग्रंथ पृ. १७) ऐयारी उपन्यासों में वृद्धि का खेल महत्वपूर्ण है । वैयक्तिक जीवन को धोखे से बचने के प्रति सावधानी तो देता ही है । राष्ट्रीय जीवन में आत्म विश्वास पैदा करता है । निश्चय ही उस समय के क्रांतिकारियों पर इसका प्रभाव पड़ा होगा । वे क्रांतिकारी जो अंग्रेजी सत्ता को समाप्त करने के लिये विभिन्न रासायनिक नुस्खों का प्रयोग कर रहे थे। मध्यकालीन सिद्धों,नाथों और योगियों ने योग-तंत्र तथा रसायन का सहारा लिया था। श्री स्वत्री के उपन्यासों में इनके साथ वैज्ञानिक आविष्कार भी जुड़े दीखते हैं। शरीर को रंगना, रूप बदलना, जमीन पर ऐसा लेप करना कि पैर रखते ही आवाज हो, गोली फेंककर धुआं निकले और लोग बेहोश हो जायँ, ऐसी दवा पी ली जाय जिससे बेहोशी की दवा का असर न हो आदि । -- । और अंत में यह कि यह कार्य जिनके अथक परिश्रम और सहयोग से पूरा हुआ वे हैं इस पुस्तक के प्रकाशक सर्वश्रीकृष्णचन्द्र बेरी,विजय प्रकाशवेरी, राजेंद्र बेरी एवं अनिल बेरी। बेरी परिवार में कल्पना और साहस का सुंदर समन्वय है। ऐसा न होता तो करीव ४०० रु० की अनेक जिल्दोवाली ये पुस्तकें मात्र ५०० और एक जिल्द में कैसे प्रकाशित होती ? इनके अतिरिक्त प्रूफ तथा अन्य सज्जादि में जिनके महत्वपूर्ण सहयोग के लिए हम आभारी हैं वे हैं- डा० लालमणि तिवारी, श्री कन्हैयालाल 'राज', चित्रकार श्री अवनिधर, श्री रामप्रसाद जी और उनके सहयोगी,प्रो० श्री गिरींद्र नाथ शर्मा, श्री मनु शर्मा, श्री वशिष्ठ मुनि ओझा, श्रीहेमन्त शर्मा एवं मुद्रक श्री प्रदीप कौल (विशिष्ठा रिप्रोग्राफिक्स प्रा०लि०, नौएडा)। इन सज्जनों के हम हृदय से आभारी हैं और शुभाशंसा व्यक्त करते हैं । शिवरात्रि, १९८८ काशी विद्यापीठ संपादक वाराणसी-२ (xvi)