पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१६१

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G तारा- हम दोनों का जबर्दस्ती ले जाने वाले डाकुओं ने जब नदी के किनारे डरा किया तो सब लोग अपन-अपर्ने काम की फिक्र में पड़। मेरी और रम्भा की डोली एक ही जगह रक्खी हुई थी, उस समय रम्भाने मौका पाकर रात की पहिली अधेरी में डोली से उतर कर मैदान का रास्ता लिया और न मालूम कहाँ चली गई। मैने भी भागने की काशिश की मगर न हो सका क्योंकि रम्भा के भागते ही पहरे वालों को मालूम हो गया और "खोजो-खोजा धरो पकडो की आवाज चारों तरफ से आने लगी बल्कि थोडी हीदर याद यह आवाज भी कान में आई कि मिल गई मिल गई है । मुझे विश्वास हो गया कि रम्भा भाग न सकी पकडी गई। उसी के थोड़ी देर बाद आप लोग पहुंचे और लडभिड कर हम लोगों की जान क्चाई, मगर अव मैं अपनी प्यारी रम्भा क बदले किसी दूसरी ही औरत को देख रही हूँ। जगजीत - (गुलाय की तरफ दख कर ) तुम कैसे फंस गई ? गुलाब- मैं आफत की मारी अपनी बहिन मोहिनी के साथ मारी-मारी फिर रही थी, इत्तिफाक से उसी नदी के किनारे पहुंची जहाँ लडाई दगा हुआ है। मैं पानी पीने के लिए नदी किनारे गई यकायक कई आदमी मेरे पास पहुंचे और यह कहकर कि मिल गई मिल गई. यही है यही मुझे पकड़ लिया। मैंने बहुत कहासुना मगर सुनता कौन है हाय, मेरे पकड़े जाने के बाद न मालूम बहिन मोहिनी की क्या दुर्दशा हुई होगी ! नरेन्द्र - मालूम होता है वह वच के निकल गई। जगजीत-मुझे तो उम्मीद नहीं कि वह बच के निकल गई होगी। हम लोगों से लड़ने के बाद भागे और फैले हुए. दुश्मनों के हाथ उसका फिर से फस जाना ताज्जुब नहीं है। नरेन्द - शायद ऐसा ही हुआ हो फिर अब क्या करना चाहिये? जगजीत - मेरी राय तो यही है कि घर चलये वहा से जो कुछ होगा बन्दोवस्त किया जायगा? नरेन्द्र - नहीं ऐसी हालत में घर तो नहीं जाऊगा। जगजीत - आप बड है मैं ज्यादे कुछ तो नहीं कह सकता मगर इतना कहे बिना भी न रहूँगा कि आप जरूर घर चलें, मैं आपको घर छोड कर खुद उसकी खोज में निकलूंगा और वादा करता हू कि यिना पता लगाये आपको अपना मुह न दिखलाऊगा। नरेन्द्र - बेचारी मोहिनी भी भारी दुर्दशा में फस गई होगी जगजीत-(अपने मन में ) भाई साहब ने तो इश्क के दो टुकडे कर डाले ईश्वर ही वचावे (जाहिर में ) अपनी अपनी किस्मत का भोग सभी भोगते है, इसका खयाल कहाँ तक कीजियेगा । जगजीतसिह की आखिरी यात नरेन्दसिह को बहुत बुरी मालूम हुई। माथे पर बल पड गए रगत बदल गई, आँखों में सुखी आ गई ! होंठ विचका कर बोले अगर यही खयाल है तो रम्भा या मोहिनी का पता खूब ही लगाओगे । आखिरी यात मुंह से निकल जाने पर जगजीतसिह को भी बहुत कुछ अफसोस हुआ और भाई को मनाने के लिए उन्हें दूनी मेहनत करनी पड़ी। आखिर हर तरह से समझा-बुझा कर उन्हें घर ले ही गए। गुलाब और तारा भी साथ में गई। नरेन्द्रसिह के वाप उदयसिह अपन लडके के घर लौट आने से बहुत ही खुश हुए मगर जब अपने छोटे लडके जगजीतसिह की जुबानी सब हाल सुना तो कई तरह की फिक्र पैदा हो गई। यह तो उन्होंने निश्चय कर लिया कि जिस तरह हो रम्मा का पता लगाना बल्कि उसे लाकर नरेन्द्रसिह के साथ व्याह देना चाहिए चाहे इसके लिए सर्वस्व जाय तो जाय मगर साथ ही इसके यह भी सोच लिया कि भरसक मोहिनी का पता न लगने देंगे और अगर शायद वह यहाँ आ भी जाय तो घुसने न देंगे क्योंकि आखिर यह बदमाश और मक्कार केतकी की वहिन है, कहाँ तक खोटी न होगी। इस वात सुनने से उन्हें यहुत दुख हुआ कि नरेन्द्र का दिल रम्भा और मोहिनी दोनों ही की तरफ खिचा हुआ है। उदयसिह ने जो कुछ सोचा या खयाल किया था उसे किसी पर जाहिर न किया मगर अपने छोटे लडके जगजीतसिह से छिपा रखना भी मुनासिव न समझा क्योंकि जगजीतसिह बहुत ही गम्भीर और नेक बद को अच्छी तरह समझने वाले थे यहाँ तक कि मुश्किल से मुश्किल विषय में इनके पिता इनसे राय लिया करते थे और इनकी राय बहुत ही मली समझी भी जाती थी। गुलाब को देखकर जगजीतसिह उस पर मोहित तो हो गए मगर अपने दिल को हाथ से जाने न दिया। उन्होंने अपना यह इरादा अच्छी तरह मजयूत कर लिया कि चाहे गुलाब के इश्क में जान चली जाय मगर साथ न करेंगे, हा अगर हर तरह से आजमाने पर वह अपनी बहिन केतकी के रग-ढग की सावित न होगी तो कोई मुजायका नहीं लेकिन तभी जव साथ ही इसके यह भी जाहिर हो जाय कि वह मुझसे मुहब्बत रखती है। रम्भा का पता लगाने के लिए बहुत से आदमी चारों तरफ भेजे गए। थोडे दिन बाद यह खबर मालूम हुई कि वह हाजीपुर में है। सुनते ही जगजीतसिह अपने बाप से विदा हुए मगर घर से बाहर न निकलने पाये थे कि यहादुरसिह की वह चीठी वहाँ पहुँच गई जो उस मसखरे ने अपने बनावटी भाई के हाथ भेजी थी। नरेन्द्र मोहिनी ११६३