पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१६६

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वि. 1 ] मुट्ठा जो उसके नीचे रक्खा हुआ था निकाला। सरसरी निगाह से उलट-पलट कर उसे इस लिये देखा जिसमें विश्वास हो जाय कि यह वही मुटठा है जिसे वह चाहती है। इस मुळे में कई वन्द'कागज नत्थी किये हुए थे जिनमें सुर्ख रोशनाई से कुछ लिखा हुआ था। मोहिनी ने उस कागज के मुढे को अपनी कुरती के अन्दर रख लिया और फिर से उन देगों का मुँह खोल खोलकर देखने लगी जिनमें अशर्फियॉ भरी हुई थीं। एक देगमें से थोड़ी सी अशर्फियॉ निकाल ली और तहखाने से बाहर निकल कर उसका दर्वाजा ज्यों का त्यों बन्द और दुरुस्त कर दिया। इसके बाद उसने दूसरी आलमारी खोली और उसमें से सादा कागज और कलमदान निकाल कर गद्दी पर जा बैठी। इस कलमदान में स्याह रोशनाई थी जिससे उसने एक सादे कागज के दोनों तरफ कुछ लिखा और तहखाने के अन्दर लाश के सिरहाने से लाये हुए कागज के मुठे को कुरती के अन्दर से निकाल कर उसी में अपने लिखे हुए इस कागज को भी नत्थी कर लिया, फिर कुछ सोचकर उसने आलमारी में से मोमजामे का एक टुकड़ा निकाला और उसी में उस कागज के मुळे को लिफाफे की तरह बन्द कर जोड पर मोहर कर दिया और उस लिफाफे को फिर अपनी कुरती के अन्दर रख लिया । मोहर और चपड़ा भी उसी कलमदान में मौजूद था। जब तक यह सब काम मोहिनी करती रही तब तक उसकी आँखों से वरावर ऑसू जारी थे। कुछ सोचने के बाद उसने वह मोहर उठा ली जिससे लिफाफा बन्द किया था और कमरे के बाहर निकल आई। इस समय भी उसने अपने सिपाही लालसिह को दर्वाजे के बाहर टहलते पाया। मोहिनी को बाहर निकलते देख कर लालसिह ने पूछा, अब क्या करना है ?' 'ठहरो मैं आती हूँ' इतना कह कर मोहिनी बाग के पूरब तरफ चली गई और एक कुएँ में उस मोहर को फेक कर तुरत लौट आई। सवेरा होने के पहिले मोहिनी ने इन सब कामों से छुट्टी या ली और इसके बाद वह लालसिह के पास जाकर खड़ी हो गई। लालसिह - देखिये सुबह की सुफेदी निकली आती है। मोहिनी - मुझे भी अब कोई काम करना बाकी नहीं है। दोनों घोड़े तैयार है। लाल - जी हॉ (हाथ का इशारा करके) उस पेड़ के साथ बधे है। मोहिनी-(अशर्फियॉ लालसिह को देकर) दिन को जो कुछ रोय हो चुकी है उसी के मुताबिक इन अशर्फियों को वॉट दो और सब आदमियों को समझा-बुझा कर तुम जल्द आओ तब तक मैं आगे बढती हूँ। घोड पर सवार होकर मोहिनी उस हाते के बाहर निकल गई। पच्चीसवां बयान दो कोस निकल जाने के बाद मोहिनी एक पेड़ के नीचे अटक कर लालसिह की राह देखने लगी। थोड़ी ही देर बाद लालसिह भी आ पहुंचा । मोहिनी ने पूछा "सभों को अच्छी तरह समझा-बुझा आये ?' लाल-जी हा। माहिनी - अब वे लोग उस ठिकाने पहुंच जायगे? लाल-वेशक पहुँच जायगे। मोहिनी -अच्छा तो फिर चलो। लालसिह - यहाँ से दोनों तरफ जाने के लिए रास्ता है। मोहिनी- अगर तुम्हें विश्वास है कि नरेन्द्रसिह बिहार ही में मौजूद है तो वहॉ ही चलने में हमारा काम ठीक होगा। लाल-इसमें तो कोई शक नहीं कि नरेन्द्रसिह विहार में है मगर एक दफे मै आपको जरूर समझाऊगा और कहूँगा कि इतने बड़े काम पर आप कमर न बाँधे और मुफ्त में अपनी जान देने पर मुस्तैद न हो। मोहिनी-लालसिह, मैं जो कुछ इरादा कर चुकी हूँ उसे किसी तरह तोड नहीं सकती मगर तुम क्यों घबडाते हो? तुम्हारे लिये बहुत दौलत रक्खे जाती हूँ जिसे तुम और तुम्हारी औलाद दस पुश्त तक आराम से बैठे खायेगी तो भी किसी तरह की कमी न होगी। लाल-यह ठीक है कि आप मेरे लिये बहुत दोलत रख जाती हैं मगर आप ऐसा मालिक फिर मै कहाँ से पाऊगा? मोहिनी-यह तो दुनिया का कायदा ही है, कोई अमर होकर नहीं आया आखिर एक दिन मरना ही है. फिर मैं अपने दुश्मनों को आराम करने के लिए क्यों छोड जाऊ ? मैं जो कुछ प्रण कर चुकी हूँ उसे अवश्य पूरा करूँगी। देखो लालसिह अब इस बारे में तुम मुझ कभी न टोकना, अपने वादे के मुताविक चलो नहीं तो पछताओगे। लाल - मैं जो कुछ वादा कर चुका हूँ उसके खिलाफ कभी नहीं कर सकता, खैर अब न टोकूगा । देवकीनन्दन यत्री समग्र ११६८