पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१८४

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बीरसिंह कपडे पहिर कर महाराज के मुसाहबों और आदमियों के साथ रवाना हुआ। इस समय पानी का बरसना बिल्कुल बन्द हो गया था और रात एक पहर से कम रह गई थी। धीरसिंह खास महल की तरफ जा रहा था मगर तरह- तरह के ख्यालों ने उसे अपने आपे से बाहर कर रक्खा था अर्थात् वह अपने विचारों में ऐसा लीन हो रहा था कि तनबदन की सुध न थी, केवल मशाल की रोशनी में महाराज के आदमियों के पीछे चले जाने की खबर थी। वीरसिंह कभी तो तारा के ख्याल में डूब जाता और सोचने लगता कि वह यकायक कहाँ गायब हो गई या किस आफत में फंस गई ? और कभी उसका ध्यान कुँअर साहब की लाश की तरफ जाता और जो-जो ताज्जुब की बातें हो चुकी थीं उन्हें याद कर और उनके नतीजे के साथ अपने और अपने रिश्तेदारों पर भी आफत आई हुई जान उसका मजबूत कलेजा कॉप जाता क्योंकि बदनामी के साथ अपनी जान देना वह बहुत ही बुरा समझता था और लड़ाई में बीरता दिखाने के समय वह अपनी जान की कुछ भी कदर नहीं करता था। इसी के साथ-साथ दह जमाने की चालबाजियों पर भी ध्यान देता था और अपनी लौडियों की बेमुरौवती याद कर के वह कोध के मारे दाँत पिसने लगता था। कभी-कभी वह इस बात को भी सोचता कि आज महाराज ने इतने आदमियों को भेजकर मुझे क्यों बुलवाया? इस काम के लिए तो एक अदना नौकर काफी था। खैर इस बात का तो यो जवाब देकर अपने दिल को समझा देता कि इस समय महाराज पर आफत आई हुई है, बेटे के गम में उनका मिजाज बदल गया होगा घबराहट के मारे बुलाने के लिए इतने आदमी उन्होंने भेजा होगा। इन्हीं सब बातों को सोचते हुए महाराज के आदमियों के पीछे-पीछे वीरसिह जा रहा था जब वह अगूर की टट्टी के पास पहुंचा जिसका जिक्र कई दफे ऊपर आ चुका है या जिस जगह अपने निर्दयो बाप के हाथ में बेचारी तारा ने अपनी जान सौंप दी थी या जिस जगह कुँअर सूरजसिंह की लाश पाई गई थी तो यकायक मशालची सके और चौक कर बोले, 'है देखिए तो सही यह किसकी लाश है ? इस आवाज ने सभी को चौका दिया। दोनों मुसाहयों के साथ वीरसिंह भी आगे बढा और पटरी पर एक लाश पड़ी हुई देखकर ताज्जुब करने लगा। चाहे यह लाश बिना सिर के थी तो भी वीरसिंह के साथ महाराज के आदमियों ने भी पहचान लिया कि कुँअर की लाश है। अब वीरसिंह के ताज्जुब का काई ठिकाना न रहा क्योंकि इसी लाश को उठाकर वह गाड़ने के लिए एकान्त में ले गया था और जब माली की झोपड़ी में से कुदाल लेकर आया तो वहाँ से गायर पाया था। देर तक ढूढने पर भी जो लाश उसे न मिली अब यकायक उसी लाश को फिर ठिकाने देखता है जहाँ से उठाकर गाडने के लिए एकान्त में ले गया था। महाराज के आदमियों ने इस लाश को देखकर रोना और चिल्लाना शुरू किया खूप ही गुल-शार मचा। अपनी अपनी झोपडीयों मे चेखवर सोये हुए माली भी सब जाग पडे और उसी जगह पहुँचकर रोने लगे और चिल्लाने में शरीक हुए। थोडी देर तक वहाँ हाहाकार मचा रहा, इसके बाद वीरसिंह ने अपने दोनों हाथों पर लाश को उठा लिया तथा रोता और ऑसू गिराता महाराज के तरफ रवाना हुआ। तीसरा बयान आसमान पर सुबह की सुफेदी छा चुकी थी जब लाश को लिऐ हुए वीरसिंह किले में पहुंचा। वह अपने हाथों पर कुँअर साहब की लाश उठाये हुए था। किले के अन्दर की रिआया तो आराम में थी केवल थोड़े से मुड्ढे जिन्हें खासी ने तग कर रक्खा था जाग रहे थे और इस उद्योग में थे कि किसी तरह बलगम निकल जाय और उनकी जान को चैन मिले। हॉ सरकारी आदमियों में कुछ घबराहट सी फैली हुई थी और वे लोग राह में जैसे-जैसे वीरसिह मिलते जाते उसके साथ होते जातेथे, यहाँ तक कि दीवानखाने की ज्याढी पर पहुंचते-पहुंचते पचास आदमियों की भीड बीरसिंह के साथ हो गई मगर जिस समय उसने दीवानखाने के अन्दर पैर रक्खा,आठ दस आदमियों से ज्यादा न रहे। कुँअर साहब की मौत की खबर यकायक चारों तरफ फैल गई और इसलिए बात की बात में वह किला मातम का रूप हो गया और, चारों तरफ हाहाकार मच गया। दीवानखाने में अभी तक महाराज करनसिह गद्दी पर बैठे हुए थे। दो तीन दीवारगीरों में रोशनी हो रही थी, सामने दो मोमी शमादान जल रहे थे वीरसिंह तेजी के साथ कदम बढाए हुए महाराज के सामने जा पहुंचा और कुँअर साहब की लाश आगे रख कर सर पर दुहत्थड मार कर रोने लगा। जैसे ही महाराज की निगाह उस लाश पर पड़ी तो अजब हालत हो गई। नजर पड़ते ही पहिचान गये कि यह लाश देवकीनन्दन खत्री समग्र ११८६