पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/२४१

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बाँदी-(ठट्ठा उडान के तौर पर हँस कर)जी हाँ क्या बात है आपकी चालाकी की ! अब दुनिया में एक आप ही तो समझदार और सच्चे रह गये हैं !! पारस-(चौक कर) यह सच्चे के क्या मानी ? आज सच्चे के उलटे खिताब पर तुमने ताना क्यों मारा? क्या मैं झूठा हूँ या क्या मैं तुमसे झूठ बोल कर तुम्हें घोखे में डाला करता हूँ? बादी- तो तुम इतना चमके क्यों? तुम्हें सच्चा कहा तो क्या बुरा किया? अगर मुझे ऐसा ही मालूम होता तो दावे के साथ तुम्हें झूठा कहती। पारस-फिर वही बात ! वही ढग !! बादी-खैर इन बातों को जाने दो इन पर पीर्छ वहस करना पहिले यह यताओ कि तुम कल आये क्यों नहीं ? तुम तो यहाँ हरनन्दन बाबू को दिखा दने के लिए अपने चाचा को साथ लेकर आने का वादा न कर गए थे। तुम्हारी जुबान पर भरोसा करके न मालूम किन-किन तीबों से मैने आधी रात तक हरनन्दन चायू को रोक रक्खा था। आखिर वही टॉय टॉय फित्त' म पहिले ही कह चुकी थी कि अब हरनन्दन याबू को तुम्हारे चाचा का कुछ भी डर नहीं रहा और इस बारे में तुम्हारे चाचा को मुँह तोड़ जवाब मिल चुका है। अब वह बड़े नारी येवकूफ होंगे जो हरनन्दन बाबू को देखने के लिए यहाँ आदेंगे। पारस-(तरदुद की सूरत बना कर) बात तो कुछ ऐसी ही मालूम पड़ती है मगर इतना मै फिर भी कहूँगा कि कल के पहिले इस किस्म की कोई बात न थी पर कल मुझे भी रग बुरे ही नजर आये जिसका सवय अभी तक मालूम नहीं हुआ, पर मैं विना पता लगाये छोड़ने वाला भी नहीं। बौंदी-(मुस्कुरा कर) अजी जाओ भी तुम्हे बसत की कुछ खबर तो हुई नहीं कहते है कि कल से कुछ बुरे रग नजर आते हैं । हो यह कहत तो कुछ अच्छा नी मालूम पड़ता कि मेरे हाशियार कर देने पर कल कुछ पता लगा है। पारस-नहीं नहीं ऐसा नहीं है। मैं तुम्हारे सर की कसम खाकर कहता हूँ कि कल जो कुछ मैने देखा वह निःसन्देह एक अनूठी और ताज्जुब की बात थी। सुनोगी तो तुम भी ताज्जुब करोगी। मगर मै यह नहीं कहता कि जो कुछ तुमने कहा था उसकी कुछ भी असलियत नहीं है, शायद वैसा मी हुआ हो। बाँदी-बत, लाजवाब हुए तो मेरे सर की कसम खाने लगे ! इनके हिसाब मेरा सर मुफ्त का आया है ! खैर, पहिल मैं सुन तो लूँ कि कल तुमने क्या देखा? पारस-(चेहरा उदास बना के ) तुम्हें मेरी बातों का विश्वास ही नहीं होता । क्या तुम समझती हो कि मैं यों ही तुम्हारे सर की कसम खाया करता हूँ और तुम्हारे सर का कदू समझता हूँ? बाँदी - (मुस्कुरा कर ) खैर तुम पहल कल वाली बात तो कहो। पारस - क्या कहूँ, तुम तो दिल दुखा देती हो। बाँदी-अच्छा अच्छा मैं समझ गई कि तुम्हारे दिल में गहरी चोट लगी और बशक लगी होगी, चाहे मरी बातों स या और कित्ती की बातों से | पारस-फिर उसी ढग पर तुम चली । और जब ऐसा ही है तो फिर मेरी बातों का तुम्हें विश्वास ही क्यों होने लगा? (लम्बी साँस लेकर ) हाय क्या जमाना आ गया है ! जिसक लिए हम मरें वही इस तरह चुटकियॉ ल ।। चाँदी - जी हाँ मरते तो सैकडों को दखती हूँ मगर मुर्दा निकलते किसी का भी दिखाई नहीं देता 1 इतना कह कर वादी वात उडान के लिए खिलखिला कर हँस पडी और पारसनाथ के गाल पर हलकी चपत लगा क मुस्कुराती हुई पुन बोली जरा सी दिल्ली में रो देने का ढग अच्छा सीख लिया है इतना भी नहीं समझते कि मैं कौन सी बात ठीक कहती हूँ और कौन सी दिल्लगी के तौर पर अच्छा बताओ कल क्या हुआ और तुम आये क्यों नहीं? मुझ तुम्हार न आने का वडा रज रहा। पारस-(खुश होकर और बॉदी के गले में हाथ डालकर) बेशक रज हुआ होगा ओर मुझे भी इस बात का बहुत खयाल था मगर लाचारी है कि वहाँ एक आदमी न पहुंचकर चाचा साहब के मिजाज का रग ही बदल दिया और अब वह दूसर ही ढग से बातें करने लग । वाँदी - (गल में स हाथ हटा कर ) तो कुछ कहो भी तो सही । पारस-परसों रात का एक आदमी याचा साहब के पास आया और उन्हें अपन साथ कहीं ले भी गया तथा जब से वे लौट कर घर आए है तनी स उनके मिजाज का रग कुछ बदला हुआ दिखाई देता है। बादी-वह आदमी कौन था? पारस-अफसोस ! जगर उत्त आदमी का पता ही लग जाता ता इतनी कजाहत क्यों हाती ! मै उसका ठीक इलाज कर लेता। बाँदी- तो क्या किसी ने उस दखा न था ? पारत-देखा तासही मगर वह ऐसे डग पर त्याह कपडा आढ कर आया था कि काई उसे पहिचान न सका सुबह का जय नै चाचा साहब के पास गया तो उनस कहा कि आज हरनन्दन को यादी के यहा दिखा देने का पूरा-पूरा बन्दावस्त काजर की कोठरी १२४३