पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/३२६

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ari देर तक वह अपनी मुसीबतों को सोचती और ईश्वर से अपनी मौत माँगती रही। आखिर उस समय उसे कुछ होश आया जव धनपति (कुन्दन ) ने उसे पुकार कर कहा किशोरी तू घबड़ा मत तरे साथ कोई बुराई न की जायगी। किशोरी-मेरी समझ में नहीं आता कि तुम क्या कह रही हो। जो कुछ तुमने किया उससे बढ कर और बुराई क्या हो सकती है? धन-तेरी जान न मारी जायगी बल्कि जहाँ तू रहेगी हर तरह से आराम मिलेगा। किशोरी-क्या इन्द्रजीतसिह भी वहॉ दिखाई देंगे? धन-हा अगर तू चाहेगी। किशोरी-(चौक कर ) है क्या कहा? अगर मैं चाहूगी? धन-हा यही बात है। किशोरी-कैसे? धन-एक चीठी इन्द्रजीतसिह के नाम की लिख कर मुझ दे और उसमें जो कुछ में कहू लिख दे। किशोरी-उसमें क्या लिखना पड़ेगा? धन-केवल इतना ही लिखना पडेगा- अगर आप मुझे चाहते है तो बिना कुछ विचार किए इस आदमी के साथ मेरे पास चले आइये और जो कुछ यह मागे दे दीजिए नहीं तो मुझसे मिलने की आशा छोडिए ! किशोरी-(कुछ देर सोचने के बाद) मै समझ गई कि तुम्हारी नीयत क्या है। नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता, में ऐसी चीठी लिख कर प्यारे इन्द्रजीतसिह को आफत में नहीं फंसा सकती। धन-तब तू किसी तरह छूट भी नहीं सकती। किशोरी-जो हो। धन-बल्कि तेरी जान भी चली जायगी। किशोरी बला से इन्द्रजीतसिह के नाम पर मैं जान देने को तैयार हूँ। इतना सुनते ही धनपति (कुन्दन) का चेहरा मारे गुस्से के लाल हो गया, अपने साथियों की तरफ देख कर बोली, अब मैं इसे नहीं छोड़ सकती लाचार है। इसके हाथ पैर बाधो और मुझे तलवार दो ! हुक्म पाते ही उसके साथियों ने बडी बरहमी के साथ बेचारी किशोरी के हाथ पैर बाध दिए और धनपति तलवार लेकर किशोरी का सिर काटने के लिए आगे बढी। उसी समय धनपति के एक साथी ने कहा नहीं इस तरह मारना मुनासिब न होगा, हम लोगबात की बात में सूखी लकडिया बटोर कर ढेर करते है, इसे उसी पर रख कर फूक दो जल कर भस्म हो जायगी और हवा के झोकों में इसकी राख का भी पता न लगेगा। इस राय को धनपति ने पसन्द किया और ऐसा ही करने के लिए हुक्म दिया। सगदिल हरामखोरों ने थोड़ी ही देर में जगल से धुन कर सूखी लकड़ियों का ढेर लगा दिया। हाथ पैर बाध कर मेरस की हुई किशोरी उसी पर रख दी गई। धनपति के साथियों में से एक ने बटुए से सामान निकाल कर एक छोटा सा मशाल जलाया और उसे धनपति ने अपने हाथ में लिया। मुह बन्द किए हुए किशोरी यह सम बात देख सुन और सह रही थी। जिस समय धनपति मशाल लिए चिता के पास पहुची किशोरी ने ऊँचे स्वर में कहा-- 'हे अग्निदेव तुम साक्षी रहना 1 में कुँअर इन्द्रजीतसिह की मुहब्बत में खुशी खुशी अपनी जान देती हू। मैसूर जानती हू कि तुम्हारी आँच प्यारे की जुदाई की आच से बढ कर नहीं है। जान निकलने में मुझे कुछ भी कष्ट न होगा। प्यारे इन्द्रजीत । देखना मेरे लिए दुखी न होना बल्कि मुझे बिल्कुल ही भूल जाना ।। हाय 'प्रेम से भरी हुई बेचारी किशारी के दिल को टुकडे टुकडे कर देने वाली इन बातों से भी सगदिलों का दिल नरम न हुआ और हरामजादी कुन्दन ने नहीं नहीं धनपति ने चिता में मशाल रख ही दी। ॥चौथा भाग समाप्त। देवकीनन्दन खत्री समग्र