पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/३२८

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ors यद्यपि दीवान अग्निदत्त के हाथ से गया की दीवानी जाती रही और वह एक साधारण आदमी की तरह मारामारा फिरने लगा तथापि वह अपने साथी डाकुओं में मालदार गिना जाता था क्योंकि उसके पास जुल्म की कमाई हुई बहुत दौलत थी और वह उस दौलत को राजगृह से थोड़ी दूर पर एक मदी में जो पहाडी के ऊपर थी रखता था जिसका हाल दस चारह आदमियों के सिवाय और किसी को भी मालूम न था। उस दौलत को निकालने में अग्निदत्त ने विलम्ब न किया और उसे अपने कब्जे में लाकर साथी डाकुओं के साथ अपनी धुन में चारों तरफ धूमने तथा इस बात की टोह लने लगा कि राजा वीरेन्द्रसिह की तरफ क्या क्या होता है। थोडे ही दिन बाद मौका समझ कर वह रोहतासगढ के चारों तरफ घूमने लगा और जिस तरह किशोरी से मिला उसका हाल आप ऊपर पढ़ ही चुके है। जिस जगह अग्निदत्त किशोरी से मिला था उससे थोड़ी ही दूर पर एक पहाडी थी जिसमें कई खोह और गार थे। वह किशोरी को उठा कर उस पहाडी पर ले गया। रोते और चिल्लाते चिल्लाते किशोरी बेहोश हो गई थी। अग्निदत्त ने उसे खोह के अन्दर ले जा कर लेटा दिया और आप बाहर चला आया। पहर रात जाते जाते जय किशोरी होश में आई तो उसने अपने को अजब हालत में पाया। ऊपर नीचे चारों तरफ पत्थर देखकर वह समझ गई कि मैं किसी खोह में हूँ। एक तरफ चिराग जल रहा था। गुलाब के फूल से नाजुक किशारी की अवस्था इस समय बहुत ही नाजुक थी। अग्निदत्त की याद से उस घडी घड़ी रोमाच होता था उसके धडकते हुए कलेजे में अजब तरह का दर्द था और इस सोच ने उसे बिल्कुल ही निकम्मा कर रखा था कि देखें चाण्डाल अग्निदत्त के पहुंचने पर मेरी क्या दुर्दशा होती है। घण्टों की मेहनत में क्डी कोशिश करके उसने अपने होश हवास दुरुस्त किए और सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए। उसने इस इरादे को तो पक्का कर ही लिया था कि अगर अग्निदत्त मेरे पास आवेगा तो पत्थर पर सर पटक कर अपनी जान दे दूंगी मगर यह भी सोचती थी कि पत्थर पर सर पटकने से जान नहीं जा सकती किसी तरह खोह के बाहर निकल कर ऐसा मौका दूँढना चाहिए कि अपने को इस पहाड के नीचे गिरा कर बखेडा तय कर दिया जाय जिसमें हमेशा के लिए इस निवाखिंची से छट्टी मिले। किशोरी चिराग बुझाने के लिए उठी ही थी कि सामने से घेर की चाप मालूम हुई। यह डर कर उसी तरफ दखने लगी कि यकायक अग्निदत्त पर नजर पड़ी। देखते ही वह कॉप गई ऐसा मालूम हुआ कि रगों में खून की जगह पारा भर गया। वह अपने को किसी तरह सम्हाल न सकी और जमीन पर बैठ कर रोने लगी। अग्निदत्त सामने आकर खड़ा हो गया और बोला- अग्नि-तुमने मुझको बड़ा ही धोखा दिया अपने साथ मेरी लडकी को भी मुझसे जुदा कर दिया। अभी तक मुझे इस बात का पता न लगा कि मेरी स्त्री पर क्या बीती और वीरेन्दसिह ने उसके साथ क्या सलूक किया और यह सय तुम्हारी बदौलत हुआ। किशोरी-फिर भी म कहती हूँ कि मुझे सता कर तुम सुख न पाओगे। अग्नि--इस समय तुम्हें पाकर मै बहुत खुश हूँ, दीन दुनिया की फिक्र जाती रही आगे जो होगा देखा जायेगा। किशोरी-में तुमसे वादा करती हूँ कि यदि आप मुझे छोड दोगे तो मै राजा वीरेन्द्रसिह से कह कर तुम्हारा कसूर माफ करा दूंगी और तुम्हारी जीविका निर्वाह के लिए भी बन्दोवस्त हो जायेगा नहीं तो याद रखना तुम्हारी स्त्री भी अग्नि--जो तुम कहोगी सो में समझ गया। मेरी स्त्री पर चाहे जो बीते इसकी परवाह नहीं न मुझे वीरेन्द्रसिह का डर है। मुझे दुनिया में तुमसे बढ कर कोई चीज नहीं दिखाई देती है। देखो तुम्हारे लिए मैने कितना दुःख भोगा और भोगने क लिए तैयार हूँ, क्या अब भी तुमको मुझ पर तरस नहीं आता । मैं कसम खाकर कहता हूँ कि तुम्हें अपनी जान से ज्यादा प्यार करूँगा यदि मेरी हाकर रहोगी। किशोरी- अरे दुष्ट चाण्डाल खबार फिर ऐसी बात मुँह से न निकालियो । अग्नि-चाहे जो हो मैं तुम्हें किसी तरह नहीं छोड़ सकता । किशोरी-जान जाय तो जाय मगर तेरी हवा अपने बदन से लगने न दूंगी। अग्नि-(हस कर ) देवू ता तू अपने को मुझसे क्योंकर बचाती है। इतना कह कर अग्निदत्त किशोरी को पकड़ने के लिए आगे बढा। किशोरी घबरा कर उठ खड़ी हुई और दूर हट गई। थोडी वर तक तो इस तग जगह में दौड धूप कर किशोरी ने अपने को बचाया मगर कहाँ तक ? आखिर मर्द के सामने औरत की क्या पेश आ सकती थी । अग्निदत्त को क्रोध आ गया। उसने किशोरी को पकड लिया और जमीन पर पटक दिया। - देवकीनन्दन खत्री समग्र