पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/४२७

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lor में उसी रास्ते से गई जिस राह से नजसिह भजे गये थे। हम पहिले लिख आय है कि याग के तीसरे दर्जे में एक बुर्ज है और उसके चारों तरफ बहुत से मकान कमरे ओर कोरिया है। बाग में एक छोटा सा चश्मा बह रहा था जिसमें हाथ मर से ज्यादे पानी कहीं नहीं था। मायारानी उसी चश्मे के किनारे किनारे थोडी दूर तक गई यहॉ तक कि वह एक मौलसिरी के पेड स नीचे पहुची जहाँ सगमर्मर का एक छोटा सा चबूतरा बना हुआ था और उस चबूतरे पर पत्थर की मूरत आदमी के बरावर की बैटी हुई थी। रात पहर भर से कम वाकी थी। चन्द्रमा धीरे धीरे निकल कर अपनी सुफेद रोशनी आसमान पर फैला रहा था। मायारानी ने उस मूरत की कलाई पकड कर उमेठी साथ ही मूरत ने मुँह खोल दिया। मायारानी ने उसके मुंह में हाथ डाल कर कोई पेंच घुमाना शुरु किया। थोडी दर में चबूतरे क सामने की तरफ का एक बड़ा सा पत्थर हलकी आवाज के साथ हट कर अलग हा गया और नीच उतरने के लिए सीढियाँ दिखाई दी। अपने पीछे पीछे धनपत को आने का इशारा करके मायारानी उस तहखान में उतर गई। यद्यपितहखाने में अधेरा था मगर मायारानी ने टटोल कर एक आले पर से लालटन और उसके बालने का सामान उतारा और बत्ती बाल कर चारो तरफ दखने लगी। पूरय तरफ सुरग का एक छोटा सा दर्वाजा खुला हुआ था दाना उसके अन्दर घुसी और सुरग में चलने लगी। लगभग सो कदम के जाने बाद वह सुरग खत्म हुई और ऊपर चढन के लिए सीढियाँ दिखाई दी। दानों औरतें ऊपर चढ़ गई और उस युज के निचल हिस्से में पहुंची जा बहुत से मकानों से घिरा हुआ था। यहाँ भी उसी तरह का चबूतरा और उस पर पत्थर का आदमी बैटा हुआ था। वह भी किती सुरग का दर्वाजा था जिसे मायारानी ने पहिली रीति से खोला। यह सुरग चौथे दर्जे में जाने के लिए थीं। दोनों औरतें उस सुरग में घुसी। दो सौ कदम के लगमग जाने बाद वह सुराग खतम हुई और ऊपर चढने के लिए सीढियाँ नजर आई। दानों औरतें ऊपर चढ कर एक काठरी में पहुंची जिसका दर्वाजा खुला हुआ था। कोठरी के बाहर निकल कर धनपत और मायारानी के अपने को बाग के चौथे हिस्से में पाया। इस याग का पूरा पूरा नक्शा हम आगे चल कर खैचेंग यहाँ केवल मायारानी की कार्रवाई का हाल लिखते है। काढरी से आठ दस कदम की दूरी पर पक्का मगर सूखा कूओं था जिसके अन्दर लोहे की एक मोटी जजीर लटक रही थी। कूए के ऊपर डोल और रस्सा पड़ा था। डोल में लालटेन रख कर कूए के अन्दर ढीला और जब वह तह में पहुंच गया ता दोनों औरतें जजीर थाम कर कूए के अन्दर उतर गई। नीच कूए की दीवार के साथ छाटा सा दर्वाजा था जिस खाल कर धनपत को पीछे आने का इशारा करके मायारानी हाथ में लालटेन लिए हुए अन्दर घुसी। वहॉ पर छाटी छाटी कई काटरियाँ थीं। बिचली कोठरी में जिसके आगे लाहे का जगला लगा हुआ था एक आदमी हाथ में फौलादी ढाल लिए टहलता हुआ दिखाई पड़ा। यहाँ बिल्कुल अधेरा था मगर मायारानी के हाथ वाली लालटेन ने उस कोठरी की हर एक चीज और उस आदमी की सूरत बखूबी दिखा दी। इस समय उस आदमी की उम्र का अन्दाज करना मुश्किल है क्योंकि रज और गम ने उसे सुखा कर काटा कर दिया है बडी बडी आखों क चारो तरफ स्याही दौड गई है और उसके चहरे पर झुर्रियों पड़ी हुई है तो भी हर एक हालत पर ध्यान देकर कह सकते हैं कि वह किसी जमाने में बहुत ही हसीन और नाजुक रहा होगा मगर इस समय कैद ने उसे मुर्दावना रक्खा है। उसके बदन के कपड़े विल्कुल फर्ट और मैले थे और यह बहुत ही मजहूल हा रहा था। काठरी के एक तरफ ताये का घडा लोटा और कुछ खाने का सामान रक्खा हुआ था ओढने और विछाने के लिए दो कम्बल थे। कोठरी की पिछली दीवार में खिडकी थी जिसके अन्दर से बदबू आ रही थी। मायारानी और धनपत को देख कर वह आदमी ठहर गया और इस अवस्था में भी लाल लाल ऑखेंकर के उन दोनों की तरफ देखने लगा। माया-यह आखिरी दफे मैं तेरे पास आई हूँ। कैदी-ईश्वर करे ऐसा ही हो और फिर तेरी सूरत दिखाई न दे। माया-अब भी अगर वह भेद मुझे बता दे तो तुझे छोड़ दूगी। कैदी-हरामजादी कमीनी औरत दूर हो मेरे सामने से !! माया-मालूम होता है वह भेद तू अपने साथ ले जायगा? कैदी-बेशक ऐसा ही है। माया-यह ढाल तेर हाथ में कहाँ से आई? कैदी-तुझ चाण्डालिन को इस बात का जवाव मै क्यों हूँ ? माया मालूम होता है कि तुझे अपनी जान प्यारी नहीं है और अव तू मौत के पजे में पड़ा चाहता है । चन्द्रकान्ता सन्तति भाग ८ ४०७