पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/५८७

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२ . - इसके सैकडों बल्कि हजारों आदमियों पर तिलिस्मी गुप्त भेदों का प्रकट कर देना क्या मामूली बात है ? अगर ऐसा होता तो बुजुर्ग लोग जिन्होंने इस किले और तिलिस्मको तैयार किया है यह रास्ता क्यों बनाते जिसे इस समय हमलोग खोद रहे है ? इस भी जाने दो सबसे मारी बात साचन की यह है कि इस तिलिस्मी रास्ते से जिधर से हम लोग आये है हमारी फोज इस किले में तब पहुच सकती है जब वह इस पहाड के ऊपर चढ़ आये मगर यह कब हो सकता है कि हजारों आदमी इस पहाड पर चढ आवें और किले वालों को खबर तक न हा। एसा होना बिल्कुल असम्भव है मगर जब हम इस रास्ते का खोल देग तो हमारे फौजी सिपाहियों का पहाड़ पर चढने की जरूरत न रहेगी क्योंकि इसका दूसरा मुहाना जस नदी के किनार पड़ता है जो इस पहाड़ के नीचे कुछ हट कर बहती है। माया-ता क्या यहाँ से उस नदी तक जाने के लिए पहाड के अन्दर ही अन्दर सीढियों बनी हुई है? वावा-बशक ऐसा ही है। रास्ते के बार में इस किले की अवस्था ठीक देवगढ़ *की तरह समझना चाहिये। में जहाँ तक ख्याल करता हू यह राहतासगढ़ का किला और वह देवगढ़ का किला एक ही आदमी का बनवाया हुआ है। माया-ता क्या फौज के सिपाही भीतर ही भीतर इस छत को नहीं ताड सकते थे जो दूसरी राह से आकर हम लोगों को यह काम करना पड़ा। वावा नहीं इसका एक खास सवव और भी है जो इस समय छत के नीचे जाने ही से तुम्हें मालूम हो जायगा। (शेरअलीखों की तरफ देख के) में समझता हूं आपकी फौज उस नदी के किनारे नियत स्थान पर पहुच गई होगी? - शेर-जरूर पहुंच गई होगी केवल हमलोगों के जाने की देर है मगर अफसोस यही है कि अब रात बहुत कम रह गई है। वावा- कोई हर्ज नहीं आजकल इस बाग में बिल्कुल सन्नाटा रहता है कोई झोंकने के लिए भी नहीं आता अगर पहर दिन चढे तक भी हमारी फौज यहाँ तक आ पहुंचे ता किसी को पता न लगेगा और बातकी बात में यह किला अपन कब्ज में आ जायेगा। बडी खुशी की बात तो यह है कि आजकल किशोरी कामिनी लाडिली और तारा भी इस किले में मौजूद है। इतने ही में बाहर की तरफ स आवाज आई 'तारा मत कहा लक्ष्मीदेवी कहो क्योंकि अब तारा और लक्ष्मीदेवी में कोई भद नहीं रहा। आश्चर्य स वावाजी मायारानी शरअलीखों और उन पांचों आदमियों की निगाह जो जमीन खोदने में लगे हुए थे दाजे की तरफ घूम गई और उन्होंन एक विचित्र आदमी को कमरे के अन्दर आते देखा। हमारे ऐयार लोग भी जो छत्त के ऊपर रोशनदान की राह से झाँककर देख रहे थ ताज्जुब के साथ उस आदमी की तरफ देखने लगे। इस विचित्र आदमी का तमाम बदन बेशकीमत स्याह पोशाक और फौलादीजे पोजे और जाली इत्यादि से ढका हुआ था केवल चेहरे का हिस्सा फौलादी जालीदार बारीक नकाब के अन्दर से झलक रहा था मगर वह इतना ज्यादे काला था और लाल तथा बडी बड़ी आँखें ऐसी चमक रही थीं कि देखने से डर मालूम होता था। यह आदमी बहुत ही ताकतवर है इसका अन्दाज तो केवल इतने ही से मिल सकता था कि उसके बदन पर कम स कम दो मन लोहे का

  • "देवगढ़ का किला हैदराबाद (दक्षिण) से लगभग तीन सौ मील के उत्तर और पश्चिम के कोने में है। यह किला

बहुत ऊची पहाडी के ऊपर विचित्रढग का बना हुआ है जिसके देखने से आश्चर्य होता है पहाड का बहुत बडा भाग छील छाल कर दीवार की जगह कायम किया गया है। पहाड के चारो तरफ एक खाई है उसके बाद तेहरी दीवार है अन्दर जाने का रास्ता किसी तरफ से मालूम नहीं होता। शहर उन तीनों दीवारों के बाहर बसा हुआ है और शहर के शहरपनाह की बडी मजबूत दीवार है। पहाड काट कर अन्दर किले मे जाने के लिये उसी तरह की सीढियाँ बनी हुई है जैसे किसी बुर्ज या धरहरे के ऊपर चढने के लिए होती है उस राहसे जानकार आदमी का भी बिना मशाल की रोशनी के सीढियाँ चढ़ कर किले केअन्दर जाना बहुत मुश्किल है। किले के अन्दर जहा वह रास्ता समाप्त हुआ है उसके मुंह पर भारी लोहे का तवा इसलिए रक्खा हुआ है कि यदि कदाचित दुश्मन इस रास्ते से घुस भी आवे तो तवे के ऊपर सैकडों मन लकड़ियॉ रख कर आग जला दी जाय जिसमें उसकी गर्मी से दुश्मन अन्दर ही अन्दर जल मरे। इस किले में पानी के कई हौज है और एक सौ साठ फीट ऊचा एक बुर्ज भी है जिस पर से दूर दूर तक की छटा दिखाई देती है। यह किला अभी तक देखने लायक है देखने से अक्ल दग होती है मुमकिन नहीं कि कोई इसे लड़कर फतह कर सके। चौदहवीं सदी में दिल्ली का बादशाह मुहम्मद तुगलक दिल्ली उजाड के वहाँ की रिआया को इसी देवगढ में बसाने के लिए ले गया था और देवगढ का नाम दौलताबाद रख कर इसे अपनी राजधानी कायम किया था परन्तु अन्त में उसे पुन लौटकर आना पड़ा। देवगढ के इर्दगिर्द में कई स्थान अब भी देखने योग्य है जैसे कि एलोरा की गुफा इत्यादि जिसका आनन्द देशाटन करने वालों को ही मिल सकता है। चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १२