पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/६६

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जसवन्तसिह को साथ लिए कालिन्दी सगमर्मर की एक कब्र पर पहुची और उसकी तरफ इशारा करके बोली, 'देखिये यही सुरग का फाटक है जरूरत पड़ने पर इसका मुँह खोला जायगा।' जसवन्त-यह कैसे निश्चय हो कि यही सुरग का फाटक है? कालिन्दी-क्या मेरी बात पर तुम्हें विश्वास नहीं है? जसवन्त-तुम्हारी बात पर मुझे पूरा विश्वास है, मगर मैं यह पूछता हू कि तुम्हें क्योंकर निश्चय हुआ कि यही उस सुरग का फाटक है जिसका दूसरा सिरा किले के अन्दर जाकर निकला है ? कालिन्दी-मैंने अपने बाप की जुबानी सुना है और दो तीन दफे उन्हीं के साथ यहाँ आई भी हू । जसवन्त-क्या तुमने इस दर्वाजे को कभी खुला हुआ भी देखा है ? कालिन्दी-नहीं! जसवन्त-तो हो सकता है कि तुम्हारे बाप ने तुमसे झूठ कहा हो और बच्चों की तरह फुसला दिया हो ! इसी समय एक तरफ से आवाज आई नहीं बच्चों की तरह नहीं फुसलाया है बल्कि ठीक कहा है । अभी तक जसवन्त और कालिन्दी बड़ी दिलानरी से बातचीत कर रहे थे मगर अब इस आवाज ने जिसके कहने वाले का पता नहीं था. इन्हें बदहवास कर दिया । घबडा कर चारो तरफ देखने लगे मगर कोई नजर न पडा । इतने में दूसरी तरफ से आवाज आई, अगर अब भी निश्चय न हुआ हो तो मेरे पास आओ ! साफ मालूम पडता था कि यह आवाज किसी कब्र में से आई है जसवन्तसिह के रोगटे खडे हो गये कालिन्दीथर थर कॉपने लगी, जवॉमर्दी और दिलावरी हवा खाने चली गई। फिर आवाज आई, किसी कब्र को खोद के देख तो सही मुर्द गडे हैं या नहीं ?' साथ ही इसके दूसरी तरफ से खिलखिला कर हॅसने की आवाज आई। अव तो इन दोनों की विचित्र दशा हो गई, बदन का यह हाल कि मानों जडैया मुखार चढ गया हो, भागने की कोशिश करने लगे मगर पैरों की यह हालत थी कि जैसे किसी ने नसों में खून की जगह पारा भर दिया हो हिलाने से जरा भी नहीं हिलते। इन दोनों के घोडे यहॉ से थोड़ी ही दूर पर थे मगर इन दोनों की यह हालत थी कि किसी तरह वहाँ तक पहुंचने की उम्मीद न रही। थोडी देर तक सन्नाटा रहा कहीं से कोई आवाज न आई इन दोनों ने मुश्किल से अपने हवास दुरुस्त किये और धीरे धीरे वहाँ से घसकने लगे। जैसे ही एक कदम चले थे कि बाई तरफ से आवाज आई "देखो भागनेन पावे। इसके जवाब में किसी ने दाहिनी तरफ से कहा, भागना क्या खेल है बहुत दिनों पर खुराक मिली है । सामने की एक और कब से आवाज आई, 'मैं भी कब्र से निकलता हू, जल्दी न करना !! जसवन्त होशियार हो चुका था. वह बडे जोर से भागा, मगर कालिन्दी की बुरी दशा हो गई। ऊपर से उसे अकेला छोड जसवन्त के भाग जाने से वह बिल्कुल ही आपे में न रही, जोर से चिल्लाकर जमीन पर गिरी और बेहोश हो गई। जब उसे होश आई अपने को उसी जगह पड़े पाया। सवेरा हो चुका बल्कि सूर्य की किरणों से कालिन्दी का बदन पसीज रहा था और गर्मी मालूम होती थी। वह घबराकर उठ बैठी और चारो तरफ देखने लगी। कब्रिस्तान में हर तरफ सन्नाटा था सवेरा होने की खुशी में फुदकती चिड़ियों और मधु बोलियों से दिल लुभाने वाले खुशरग पक्षियों के सिवाय किसी आदमजात की सूरत दिखाई नहीं देती थी, हा थोडी ही दूर पर एक पेड से बँधा हुआ उसका कसा कसाया घोडा टापों से जमीन खोदता हुआ जरूर दिखाई पड रहा था । दिन निकल आने के कारण कालिन्दी का डरा हुआ दिल धीरे धीरे शान्त हो रहा था और कलेजे की धडकन मिट चुकी थी। भागने के बदले इस समय वह पहरों उसी कब्रिस्तान में बैठी रह सकती थी मगर किसी की बेमुरौवती और खुदगर्जी ने उसके कलेजे को निचोड डाला था जिसके सदमे से वह बदहवास हो रही थी। यह बेमुरौवती और खुदगर्जी जसवन्तसिह की थी। पाठ भूले न होंगे कि उस दुष्ट के प्रेम में कितनी मतवाली और अन्धी होकर कैसे नाजुक समय में महारानी के साथ कितना नीच व्यवहार करके कालिन्दी घर से निकल जसवन्त के पास गई थी और उससे मिलकर कितनी प्रसन्न हुई थी मगर आज उसकी उम्मीदें बिल्कुल जाती रही और उसके बुरे कर्मों का फल बडा भयानक होकर मिलता हुआ उसे दिखाई पड़ा। बदकार औरतों का दिल एक तरह पर कभी स्थिर नहीं रहता जिसका नमूना इस दुष्टर ने अच्छी तरह दिखलाया। यह सदमा उससे किसी तरह बर्दाश्त न हुआ और वह इस सन्नाटे के आलम में ऊँचे स्वर में बोल उठी- 'अफसोस मैंने बहुत ही बुरा किया !हाय दुष्ट जसवन्त मुझे कैसी बुरी अवस्था में छोडकर अपनी जान लेकर भाग निकला 'मुझे यह उम्मीद न थी। वह बड़ा ही कमीना और मतलबी है. मौका पड़े तो वह मेरी जान लेकर भी अपना 'देवकीनन्दन खत्री समग्र १०७४