पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/७७१

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कुवेरसिह ने उससे पूछा 'तुम कौन हो?' नकाबपोश - मैं इस तिलिस्म का दारोगा हू। माया-इस तिलिस्म का दारोगा तो राजा बीरेन्द्रसिक्ष के कब्जे में है। नकाब - वह तुम्हाराद रोगा था और मै राजा गोपालसिंह का दारोगा हूँ, आजकल यह माग मेरे ही कब्जे में है। माया-जिस समय हम लोग यहाँ आये तुम कहाँ थे?' मका-इसी आग में। माया-फिर हम लोगों को रोका क्यों नहीं ? नकाय-रोकने की जरुरत ही क्या थी? यह रा मैं जानता ही था कि तुम लोग अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मार रहे हा। तुम लोगों की वेवकूफी पर मुझे इंसी आती है। माया बवकूफी काहे की? नकाय-एक तो यही कि तुम लोगों ने इतनी फौज को बाग के अन्दर घुसेड़ तो लिया मगर यह न साचा कि इतन आदमी यहाँ आकर खायेंगे क्या? अगर घास और पेड़ पत्तों को भी खाकर गुजारा किया चाहें तो भी दो एक दिन से ज्यादा का काम नहीं चल सकता। क्या तुम लोगों ने समझा था कि बाग में पहुचत ही राजा गोपालसिह को मार लेंगे? माया-गोपालसिह को ता हमलोगों ने मार ही लिया, इसमें शक ही क्या है ? बाकी रही हमारी फौज सो एक दिन का खाना अपने साथ रखती है कल तो हम लोग इस वाग के बाहर ही हो जायेंगे। नकाय-दोनों बातें शेखचिल्ली की सी है। न तो राजा गोपालसिह का तुम लोग कुछ बिगाड सकते हो और न इस बाग के बाहर की हवा ही खा सकते हो। माया-तो क्या गोपालसिह किसी दूसरी राह से निकल जायेंगे ? नकास-वेशक। माया और हम लोग बाहर न जा सकेंगे? नकार-कदापि नहीं क्योंकि मैने सय दर्वाजे अच्छी तरह बन्द कर दिए है। तुम तो तिलिस्म की रानी बनने का दावा व्यर्थ ही कर रही हो !तुम्हें तो यहाँ का हाल रुपये में पैसा भी नहीं मालूम है। अभी मैने तुम लोगों के उतरने की राह रोक दी थी सो तुम्हारे किये कुछ भी न बन पडा ! जब तुम लोग छत पर थे पचीस आदमी तुम्हारे सामने से होकर नीचे चले आये अगर तुम्हें तिलिस्म की रानी होने का दावा था तो उन्हें रोक लेती ! मगर राजा साहब के हौसले को देखौ कि तुम लोगों के यहाँ आने की खबर पाकर भी अकले सिर्फ भैरोसिह को साथ लेकर इस बाग में चले आए? माया-उन्हें हमारे आने की खबर कैसे निली? नकाय-(जोर से हंस कर ) इसके जवाब में तो इतना ही कहना काफी है कि तुम्हारी लीला इस बाग में आने के पहिले ही गिरफ्तार कर ली गई। माधवी-तो क्या हमलोग किसी तरह अब इस बाग के बाहर नहीं जा सकते? नकाम-जीते तो नहीं जा सकते मगर जब तुम लोग मर जाओगे तब समों की लाशें जरुर फेंक दी जायेंगी ! जिस मकान में मायारानी उतरी थी उसी के बारामदे में वह नकाबपोश टहल रहा था। बारामदे के आगे किसी तरह की आड या रुकावट न थी। मायारानी उससे बातें करती जाती और छिपे ढग से अपने तिलिस्मी तमचे को भी दुरुस्त करती जाती थी तथा रात होने के सबब यह बात उस नकाबपोश को मालूम न हुई जब वह माधवी से बातें करने लगा उस समय मौका पाकर मायारानी ने तिलिस्मी तमचा उस पर चलाया। गोली उसकी छाती में लग कर फट गई और वेहोशी का यूंआ बहुत जल्द उसके दिमाग में चढ गया साथ ही वह आदमी यहोश होकर जमीन पर लुढकता हुआ मायारानी के आगे आ पड़ा । भीमसेन ने झपट कर उसकी नकाब हटा दी और चौक कर योल उठा, “वाह वाह !यह तो राजा गोपालसिह है। ग्यारहवां बयान कुँअर इन्द्रजीतसिह आनन्दसिह और सर्प को बड़ा ही ताज्जुब हुआ जब उन्होंने एक-एक करके सात आदमियों को तिलिस्मी बाग में पहुचाए जाते देखा । जब उस मकान की खिडकी बन्द हो गई और चारो तरफ सन्नाटा छा गया तब इन्द्रजीतसिह ने आनन्दसिह से कहा "उस तरफ चल कर देखना चाहिए कि ये लोग कौन है। आनन्द - जरुर चलना चाहिये। सयू- कहीं हम लोगों के दुश्मन न हो। चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १७