पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/९०

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रनवीर-बालेसिह का हाल हमें मालूम हो चुका है और सत्तगुरु न उसके विषय में जो कुछ कहना था वह भी कह दिया है परन्तु सत्तगुरु की आज्ञा बालेसिह को आज के पांच दिन सुनाई जायगी। नोजवान-बहुत अच्छा, तब तक यहा खबीर-यस बस यस. चुप चुप । अहा. तू ही तो है !! इसके आगे नौजवान की हिम्मत आगे न पड़ी कि कुछ कहे। थोड़ी देर बाद रनवीरसिह ने फिर कहा- रनवीर-सत्तगुरु की आज्ञा से तुम लोगों के सार को में कुछ उपदेश करूगा, उर्स जल्द बुलाओ । नौजवान-(हाथ जोडकर) वे तो काशी की तरफ गये हुए है आज कल में रनवीर-वस बस बस, ज्यादे मत वोला किसी को भेजा आगे बढके उसे दो और जल्द आन के लिए कहे ! नौजवान-जा आक्षा। नौजवान न तुरन्त दो आदमियों को जाने का इशारा किया। रनवीरसिंह भी अहा तू ही ता है ! अातू ही तो है ! कहत हुए वहा से उठे और मकान के बाहर हो उसक वारी तरफ पाल युशनुमा मैदान में टहलन लगे, और लोगों का उन्होंने अपना अपना काम करन के लिए कहा। इतिफाक की बात थी कि उन लागा को सर्दार जा किसी काम के लिए सफर में गया हुआ था इसी समय वहा आ पहुधा मगर इस बात को उन लागों ने वाया जी की ही करामात समझा और ममों का विश्वास हो गया कि सत्तगुरु देवदत्त की गद्दी क महात्माजी (रनवीर)नि सन्दह महान् पुरुष हे नौजवान ने आगे बढकर सदार को सत्तगुरु क आन का हाल कहा। जिसे सुनकर वह बहुत ही प्रसन्न हुआ। यद्यपि उन लोगों का काम डाकू लूटेरों और बदमाशों का सा बल्कि इसस भी वढा हुआ था परन्तु अपने गुरु के नाम तथा गद्दी की बडी ही इज्जत करते थे और समझते थे कि सत्तगुरु देवदत्त एक अवतार हो गये हैं और उन्हीं की कृपा से हम लोग अपना काम कर सकते हैं। उन लोगों का जब काई काम बिगड़ता, तो यही समझते कि आज सत्तगुरु देवदत्त हम लोगों से रज हो गये है इसी से यह काम बिगड गया है यही कारण थाफि सर्दार ने गुरु का दर्शन किये बिना मकान के अन्दर जाना उचित न जाना और सब लोगों तथा नौजवान को लिए हुए मैदान के उस हिस्से की तरफ बढ़ा जहा रनवीरसिह- अहा. तू ही तो है !"कहते हुए मस्तानों की तरह झूम झूम कर टहल रहे थे। रनवीरसिह ने दूर ही से देखा कि उस मकान के रहने वाले इकटे हाकर हमारी तरफ आ रहे है और उनके आगे आगे एक आदमी जो हर तरह से सर्दार मालूम होता है हाथ जोड़े हुए चला आ रहा है। जब वह सर्दार रनबीरसिह के पास पहुचा तो दण्डवत करने के लिए जमीन पर लेट गया और उसकी देखा देखीउसके साथियों ने भी यही किया, मगर उस सर्दार को देखते ही रनवीरसिह का कलेजा काप गया और उनके चेहरे पर डर और तरदुद की निशानी दौड़ गई जिस यद्यपि उन्होंने बडी मुश्किल और होशियारी से उन लोगों के उठने के पहिले दूर कर दिया मगर कलेजे की धडकन कुछ कुछ रह ही गई जिसे उद्योग करने पर भी दूर न कर सके हो इतनी चालाकी अवश्य की कि बैठ गए। हम नहीं कह सकते की उस सर्दार-से रनवीरसिंह के इतना डरने का क्या कारण था। क्या रनबीरसिह उसे पहिले कभी देख चुके थे या उसके हाथों कुछ तकलीफ उठा चुके थे !या वे इस बात को नहीं जानते थे कि इस जगह हम किसी ऐसे आदमी को देखेंगे जिसके देखने की आशा न थी या उन बावाजी ने इस सर्दार के बारे में कुछ परिचय दिया था जिसकी बदौलत यहाँ तक आये हैं या और कोई सयब है सो तो वही जाने, मगर यह अवस्था उनकी ज्यादे देर तकन रही बल्कि तुरन्त ही दूसरी अवस्था के साथ वदल गई. अर्थात् जय सर्दार हाथ जोड़कर सामने खड़ा हो गया तो डर की जगह गुस्से ने अपना दखल जमा लिया और रनवीरसिह के चेहरे पर वे निशानियों दिखाई देने लगी जो दुश्मन से यदला लेने के समय बहादुर सिपाही के चेहर पर दिखाई देती है। यद्यपि रनवीरसिह ने इस अवस्था को भी बड़ी होशियारी के साथ दवाया तथापि मार्थ के बल और आँखों की लाली पर सर्दार की निगाह पड़ ही गई और उसने बड़ ताज्जुब में आकर रनवीरसिंह से पूछा क्या गुरू महाराज मुझ पर कुछ क्रोधित है ? रनवीर-(जमीन की तरफ देखकर) हॉ। सर्दार-क्यों। रनवीर-इसलिये कि तुमने कई काम नियम और धर्म के विरुद्ध किये हैं। यह एक साधारण सी बात थी जो रनवीरसिह ने सर्दार से कही, और ऐसी बातें हर एक से कह कर उसका जी खुटके में डाला जा सकता है। क्योंकि दुनिया में कोई मनुष्य ऐसा न होगा जिससे नियम तथा धर्म के विरुद्ध कोई न कोई काम न हो गया हो फिर ऐसे नालायको से जिनका कि दिन और रात बुरे कामों ही में बीतता हो। यह रनबीरसिह की केवल बालाकी थी सो भी इसलिए कि उनके हाव भाव को देखकर सर्दार के दिल में किसी दूसरे प्रकार का खुटका न देवकीनन्दन खत्री समग्र १०९८