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सुखानन्द




सुखदास की स्त्री का नाम सुन्दरी था। वह यों तो भली स्त्री थी पर मिजाज की जरा चिड़चिड़ी थी। सुखदास घर-बार से बेपरवाह था। उसे अपने वेतन की भी चिन्ता न थी। वह नौकरी नहीं बजाता था, सेठ के घर को अपना घर समझता था।

जिस दिन कुमार दिवोदास की दीक्षा हुई, उससे एक दिन प्रथम सुखदास और उसकी पत्नी में खूब वाग्युद्ध हुआ था। वाग्युद्ध का मूल कारण यह था कि सुखदास ने तेईस वर्ष पूर्व सुन्दरी से उसके लिए एक जोड़ा नूपुर बनवा देने का वादा किया था। वे नूपुर उसने अभी तक बनवाकर नहीं दिए थे। तेईस वर्षों के इस अन्तर ने सुन्दरी को अधेड़ बना दिया था, प्राय: प्रतिदिन ही वह सुखदास से नूपुर का तकाजा करती थी और प्रतिदिन सुखदास उसे कल पर टाल देता था। इसी प्रकार कल करते-करते तेईस वर्ष बीत चुके थे। कल रात इस मामले ने बहुत गहरा रंग पकड़ा था। सुन्दरी को इसके लिए आँसू गिराने पड़े थे। और सुखदास ने प्रणबद्ध होकर वचन दिया था कि कल नूपुर नहीं बनवा दूं तो घर-बार छोड़कर भिक्षु हो जाऊँगा। सुन्दरी को नूपुर पहनने की बड़ी अभिलाषा थी, वार्धक्य आने से भी वह कम नहीं हुई थी। उसने कहा "भिक्षु हो जाओगे तो सन्तोष कर लूंगी। पर यदि कल नूपुर न लाए तो देखना मैं कुएँ-तालाब में डूब मरूँगी।" सुखदास "अच्छा, समझ गया।" कहकर घर से बाहर चला गया था।

आज सुखदास को एक साहस करना पड़ा। दिवोदास का भिक्षु होना वह सहन न कर सका। बौद्धों के पाखण्ड से वह खूब परिचित था। उसने चुपचाप दिवोदास की सहायता करने के लिए भिक्षु वेश धारण कर लिया। दाढ़ी-मूँछों का सफाया कर लिया और पीत कफनी पहन ली। उसने चुपचाप संघाराम में दिवोदास के पास रहने की ठान ली थी।

सुन्दरी आज बहुत क्रोध में थी। उसने निश्चय किया था, आज जैसे भी हो वह नूपुर बिना मँगाये न रहेगी। जब देखो झूठा बहाना। बहाने ही बहाने में खाने-पहनने के दिन बीत गए। आज वह नहीं या मैं नहीं।

वह बड़बड़ाती हुई बाहरी कक्ष में आई। उसका इरादा कल के युद्ध को फिर से जारी करके पति को परास्त कर डालने का था। कक्ष में देखा——वहाँ सुखदास के स्थान पर कोई भिक्षु पीत कफनी पहिने बैठा है। सुखदास की भाँति सुन्दरी भी भिक्षुओं को एक आँख नहीं देख सकती थी। उसने भिक्षु को देखते ही आग बबूला होकर कहा :

"यह कौन मूड़ीकाटा बैठा है, अरे तू कौन है?"

"यह मैं हूँ प्रेमप्यारी जी, तुम्हारा दास सुखदास। पर अब तुम इसे भिक्षु सुखानन्द