सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:देवांगना.djvu/२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

कहना।"

सुन्दरी का कलेजा धक से रह गया। उसने घबड़ाकर कहा :

"क्या भाँग खा गए हो? मूछों का एकदम सफाया कर दिया?"

"तुम्हीं तो इन्हें कोसा करती थी? कहो अब यह मुँह कैसा लगता है?"

"आग लगे इस मुँह में, यह भिक्षु का बाना क्यों पहना है?"

"तुम्हीं ने तो कहा था कि साधु होकर घर से निकल जाओ, मैं सन्तोष कर लूंगी। लो अब जाता हूँ।"

सुखदास ने जाने का उपक्रम किया तो सुन्दरी ने बढ़कर उसके पीत वस्त्र का पल्ला पकड़ लिया। रोते-रोते कहा–"हाय-हाय, यह क्या करते हो, अरे ठहरो, कहाँ जाते हो?"

"जाता हूँ।"

"अरे मुझे भरी जवानी में छोड़ जाते हो निर्दयी।"

"अरे, वाह रे भरी जवानी! कब तक जवान रहेगी!"

"जाने दो, मैं नूपुर नहीं मागूँगी।"

"अब तुम नूपुर लेकर ही रहना। मुझसे तुम्हारा क्या वास्ता! मैं चला।"

"अरे लोगो, देखो। मैं लुट गई। नहीं, मैं नहीं जाने दूंगी।" वह रोती हुई सुखदास से लिपट गई।

"तब क्यों कहा था?"

"वह तो झूठमूठ कहा था।"

"तो प्रेमप्यारी जी, मैं भी झूठमूठ का भिक्षु बना हूँ, कोई सचमुच थोड़े ही!"

"अरे, यह क्या बात है!"

"किसी से कहना नहीं, गुपचुप की बात है।"

"अरे, तो तुम झूठमूठ क्यों मूँड़ मुड़ा बैठे?"

"तब क्या करता, मालिक की अकिल तो पिलपिली हो गई है। जवान बेटे को बैठे- बिठाए मूँड़ मुड़ाकर घर से निकाल दिया। भिक्षु बड़े पाजी होते हैं। और वह सबका गुरु घंटाल पूरा भेड़िया है। उसके दाँत सेठ की दौलत पर हैं। भैया पर न जाने कैसी बीते; मेरा उनके साथ रहना बहुत जरूरी है, समझी प्रेम-प्यारी जी!"

"पर मेरी क्या गत होगी यह कभी सोचा, नूपुर नहीं थे तो क्या तुम तो थे। इसी से सन्तोष था, अब तो तुम भी दूर हो जाओगे। आज झूठमूठ के साधु बने हो, कल सचमुच के बनने में क्या देर लगेगी।"

"नहीं प्रेमप्यारी जी, कहीं ऐसा भी हो सकता है? तुम्हें छोड़कर भला सुखदास की गत कहाँ है। पर भैया की सेवा करना भी मेरा धर्म है। लो अब मैं जाता हूँ।"

"तो फिर मुझे क्या कहते हो?"

"बस, इस झमेले से बेबाक हुआ कि मुझे नूपुर बनवाने हैं।"

"भाड़ में जाए नूपुर! मेरे लिए तुम बने रहो।"

"मैं तो पक्का बना-बनाया हूँ, चिन्ता मत करो।"

"फिर कब आओगे?"

"रोज ही आएँगे, आने में क्या है! सभी भिक्षु भिक्षा के लिए आते हैं। हम यहीं