वा मनमोहन को वह मोहन सोहन सुंदर रूप बिरोधो, या जिय मैंपिय मूरति है पिय मूरति देव सुमूगति कोधो।।१४५॥
जीव से जीवन मिलता है, और जीवन से धन, किंतु स्वामी के जीवित रखने को वह धन भी गया, अर्थात् यदि चला जाय, तो हानि नहीं। इस चित्त की गति इष्ट (प्रीति-भाजन) की प्रीति तक है, और उस प्रीति-भाजन की सीधी निगाह अनिष्ट तक खोजा है; अर्थात् प्रीति-भाजन की सीधी निगाह के लिये केवल अनिष्ट सीमा समझा है, शेष कोई सीमा नहीं है । चित्त उस मनमोहन के शोभायमान सुंदर रूप में अटका है। इस मेरे चित्त में प्रियतम की मूर्ति है, और प्रियतम की मूर्ति सुंदर मूर्ति ( भगवान् ) की ओर है ; अर्थात् प्रियतम ही भगवान् हैं।
निबोधो = भली भाँति जाना । बिरोधो-अटकी हुई ('रोधन, शब्द से बना है)। कोधो = तरफ़।
जेठी बड़ी ते अमेठीसि भौंहनि रूछ महा मन सूछम सीखें , देवजूबातनिहीसों हितौति सी सौति सखीसु चितौति तिरी लाजी की आँचननि याचित राचननाचनचाई हौं नेहनछीछ, चाह भई फिगैंयाचित मेकिछहभई फिरौंनाह केपीछे।। १४६॥
- सखी मानो सौति के समान होकर टेढ़ी दृष्टि से देखती
है, और केवल बातों में हित करती है, वास्तविक नहीं । इस पद का भाव निम्नलिखित उर्दू-छंद से मिलता है-
य कहाँ कि दोस्ती है कि हुए हैं दोस्त नासेह, कोइ चारासाज़ होता, कोइ ग़मगुसार होता ।
- यह चित्त लाज की आँखों से नहीं रचा (अनुरक्त) है,
अथच अक्षुण्ण प्रेम ने मुझे नाच नचाया है।