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पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/१२४

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देव-सुधा

नैनिन मैं ठाढ़ेई सुनावें श्रवननि बैन,

बैन बसैं रसना हिए ह परसी मरौं ।

देखौं न सुनौं न बैन बोलि न मिलौं, न बिनु

देखि-सुनि बोलि-मिलि आँस बरसी मरौं ।

देखत दुखति सुनि सूखति बिलाति बोल

मिलेहू मलिन है के लाज सरसी मरौं;

एते पर देखिबे को, सुनिबे को, बोलिबे को,

देव हियो खोलि मिलिबे को तरमी म ।।१७२॥

तरसी-एक प्रकार की छोटी मछली । बरसी-बरसाते हुए, अर्थात् डालते हुए । सरसी = वृद्धि से।

ना खिन, टरत टारे, आँखि न लगत पल ,

आँखिन लगे री स्यामसुंदर सलौन से;

देखि-देखि गातन अघात न अनूग ग्स

भरि-भरि रूप लेत आनँद अचौन से।

  • नायक नैनों में खड़ा ( सामने प्रस्तुत ) है, अथच कानों में वचन सुनाता है ( बात कर रहा है ), किंतु नायिका के बन जिह्वा में बसे हैं (वह अबोल है, अर्थात् उसके वचन जिह्वा का निवास नहीं छोड़ते), और तो भी हृदय में वह मछली के समान (बोलने आदि को)तड़पती है।

+ लजाधिक्य से नायिका देखने से दुःखित होती है, बात सुनने से सूख जाती है, बोल से बिला जाती है, अर्थात् इतना सिकुड़ती है, मानो अंतर्धान हो गई है, और मिलने से मलिन होकर लाज की वृद्धि से मरी-सी जाती है।