पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/१२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२१
देव-सुधा

एरी कहि कोहौं हौं कहाँ हौं कहा कहति हौं, कैसे बन-कंज देव देखियत भौन - से;

राधे हौ सदन बैठो कहती हौ कान्ह-कान्ह, हा हा कहु कान्ह वे कहाँ हैं को हैं कौन-से ॥१७२॥

साढ़े तीन पदों में नायिका का कथन है, और आधे में दूती का । अचौन-कटोरा । आचमन करने का साधन ।

कान्हमई बषभानु-सुता भई प्रीति नई उनई जिय जैसी , जाने को देव बिकानीमि डोलै लगै गुरु लोगन देखे अनैसी ; ज्यौं-ज्यौं सखी बहरावति बातन, त्यों-त्यौं बकै वह बावरी-ऐसी, राधिकाप्यारीहमारी सौं तू कहिकाव्हिकी बेनुबजाई मैं कैसीछ।

अनैसी बुरी । सौं-शपथ । बहरावति बहलाती है।

दुहू मुख - चंद ओर चित4 चकोर, दोऊ चितै-चितै चौगुनो चितवो ललचात हैं;

हासनि हँसत बिन हाँसी बिहसत मिले गानि सों गात, बात बातनि मैं बात हैं।

प्यारे तन प्यारी पेखि पेखि प्यारी पिय तन, पियत न खात नेक हूँ न अनखात हैं;

देखि ना थकत देखि-देखि ना मकत देव, देखिबे की घात देखि देखि ना अघात हैं ॥१७४।।

संयुक्त प्रेम का वर्णन है। अनखात रुष्ट होते हैं।

  • इस पद में जो कथन है, वह स्वयं राधिकाजी बावली-सी होकर तथा प्रेमोन्मत्तता के कारण अपने को श्याम समझकर कर रही हैं।