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देव-सुधा

देवजू या मन मेरे गयंद को रैनि रही दुख गाढ़ महा है, प्रेम पुरातन मारग बीच टकी अटकी हग सैल-सिला है; आधी उसास नदी अँसुवान की बूड़यो बटोही चलै बलुकाहै , साहुनी चित चीति रही अरु पाहुनी लै गई नींद बिदा है ।

रैनि रही दुख-गाड़ = रात दुःख का गढ़ा हो गई है । हग टकी =दृष्टि की स्थिरता ( टकटकी)। बलु का है = किस बल से। साहूनी = साहूकार की स्त्री, अर्थात् ऊँचे मनवाली।

उठो अकुलाय सुनी जब नेक कला परबीन लला ब्रजराज , बिसारि दई कवि देव तुम्हें अवलोकत ही अब लोक की लाज; इते पर और चबाव चल्यौ बरजै घर जे गुरु लोग समाज , कहाँ लगि लाल कळू कहिए, इतनी सहिए सब रावरे काज ।

नायिका नायक से अपनी प्रेम-दशा का वर्णन करती है। चबाव = बुरी चर्चा, पैशुन्य।

जागत हू सपने न तजौं अपनेई अयानपने को अँध्यारो, क्यों हूँ छिपातछिनौनदिनौ निमि देह दिपै दुति देव उज्यारो; नैनन ते निचुग्यौ परै नेह रुखाई के बैनन को न पत्यारो, दूरि रह्यो कित जीवन-मूरि जु पूरि रह्यो प्रतिबिंब ज्योंप्यारो।


  • हाथी को फँसाने के लिये प्रायः रात को गड्ढा खोदा

जाता है।

+ चित्त में चीतकर (चिंता करके, विचार करके) नींद साहुनी के समान अभिमानिनी हो गई, अर्थात् बुलाने से नहीं आती, और बाहुनी के समान शीघ्र बिदा होकर चली गई ।