विषयों के कई परमोत्कृष्ट छंद भी निकाल डाले गए हैं। देव-कृत छंदों में विविध भाव निकलते हैं, सो विषय-विभाजन में मतभेद हो सकता है, अर्थात् वे ही छंद अन्य विभागों में भी रक्खे जा सकते है, अथच नवीन विभाग बन सकते हैं, जैसे स्वाभाविकता, रस, भाव, अलंकार आदि-आदि अनेक विषयों पर । आशा है, ऐसे ही कई संग्रह निकल चुकने पर पाठक महाशय सुगमता-पूर्वक तुलनात्मक समा. लोचना में सफल हो सकेंगे। देवजी के छंदों पर टीका का प्रारंभ हमने सं० १९८१ में किया था, किंतु कई कारणों से यह काम अब तक पड़ा रहा था। आदि में भूमिका की रचना देव-कृत छंदों से ही की गई है। उसमें आपके साहित्य-संबंधी विचार मिलेंगे। कुछ महाशय देव की रचना में अर्थ-काठिन्य का दोष लगाते थे, अथच एक समालोचक का कथन है कि इनमें असमर्थ अर्थ-पूर्ण शब्द-प्राचुर्य भी है। किसी के हजारों छंदों में से दो-चार में खींच-तान द्वारा कोई दोष स्थापित करके उसे व्यापक शब्दों में कह देना सत्य की अवहेलना करनी है । देव की रचना में अर्थ-गांभीर्य अवश्य है । प्रति शब्द पर विचार करने से छंदों में मनोहर अर्थ निकलते हैं। कुछ महाशय उन्हें समझने की सामर्थ्य ही न रखकर अपने अल्प ज्ञान का दोष कवि पर रखने लगते हैं । “चितवत लोचन अंगुलि लाए ; प्रकट युगल शशि तिनके भाए।" कुछ लोग समयाभाव या शीघ्रता की आदत से प्रति शब्द पर विचार न करके पूर्ण अर्थ नहीं समझ पाते, और अपनी उस असमर्थता का दोष कवि पर लादते हैं। इन्हीं कारणों से छंदों के कठिन भागों के हमने इस बार अर्थ लिख दिए हैं, जिसमें उपयुक्त प्रकार की गड़बड़ न पड़े। साधारण पाठक भी प्रायः टीका-सहित पाठ चाहते हैं। यद्यपि हम लोग हिंदी की सेवा किया ही करते हैं, तथापि हमारा क्षेत्र टीका न होकर समालोचना है । टीका हमने इतिहास के कारण केवल भूषण पर लिखी थी ।
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