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पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/१३५

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देव-सुधा

पून्यो[] प्रकास उदो उकसाइकै आसहू पास बसाइ अमावस[],
दै गए चित्त मैं सोच-बिचार, सु लै गए नींद छुधा बल बाबस;
है[] उत देव बसंत सदा इत है[] उत है हिय-कंप महा बस,
दै[] सिसिरो निसि ग्रीषमके दिन आँखिन राखि गएरितुपावस[]

नायिका की विरह-दशा के अंतर्गत षट् ऋतुओं का वर्णन है। उदो = उदय को। बाबस = बलात्कार से। अथना वहाँ रहते हुए। है उत है = हेमंत-ऋतु है।

ना यहु नंद को मंदिर हे वृषभान को भौन कहा जकती हौ,
हौंहीं कि ह्याँ तुमहीं कबि देवजू काहि धौं घूँघट कै तकती हौ;
भेटती मोहिं भटू किहि कारन कोन की धौं छबि सों छकती हौ,
कैसी भई हौ कहौ किन कैसेहूकान्ह कहाँ हैं कहाबकती हौ॥१९५॥

जकती हौ = भौचक्की होती हौ।

  1. शारदीय चंद्र तथा नायिका के मुख से अभिप्राय है; यहाँ शरद् ऋतु का निर्देश है।
  2. नायिका के केश-कलाप से अभिप्राय है, जो विरह-वश खुले हुए हैं।
  3. जहाँ नायक है, वहीं वसंत-ऋतु है, तथा वहीं पर सब आनंद की सामग्री है, एवं यहाँ हेमंत है।
  4. नायिका का विरह में हृदय काँपने से हेमंत-ऋतु का अभिप्राय है।
  5. नायक के विरह में नायिका के लिये रात्रि शिशिर-ऋतु की रात्रि के समान बड़ी है, तथा दिन ग्रीष्म-ऋतु के दिन समान बड़े हैं। इस चरण में शिशिर तथा ग्रीष्म-ऋुतओं का निर्देश है।
  6. नेत्रों से अश्रु-धारा का बहना मानो पावस ऋतु है।