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देव-सुधा

जो कछ पुन्य अरन्य जल स्थल तीरथ खेत निकेत कहावे, पूजन-जाजन औ' जप-दान अन्हान परिक्रम गान गनाव ; और किते ब्रत नेम उपास अरभु के देव को दंभु दिखावै , हैं सिगरे परपंच के नाच जुपै मन मैं सुचि साँच न श्रावै ॥१५॥ है अभिमान तजे मनमान बृथा अभिमान को मान बहेए, देव दया करे सेवक जानि सुसील मुभाय सलोनी लहैए; को सुनि के बिन मोल बिकाय न बोलन कोइ को मोल न हैए, पैए असीस लचेए जो मीस लची रहिए तब ऊँची कहैए ॥१६॥

कवि उपदेश के हेतु से सिद्धांत का वर्णन करता है । सलोनी = लावण्यमयी।

भक्ति

कथा मैं न, कंथा मैं न, नीरथ के पंथा मैं न, पाथी मैं, न पाथ मैं, न माथ की वसीति मैं ;

जटा मैं न, मुंडन न, तिलक त्रिपुंडन न, नदो-कूप-कुडन अन्हान दान-रीति मैं ।

पीठ-मठ-मंडल न. कुडल कमडल न, माला-दौंड मैं न, देव देहरे को भीति मैं ;

आपु ही अपार पारावार प्रभु पूरे रह्यो, पाइए प्रगट परमेसर प्रतोति मैं ॥१७।।

ऐसो जु हौं जानतो कि जैहै तू विषै के संग, एरे मन मेरे हाथ-पायँ तेरे तोरतो;