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पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/३१

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देव-सुधा
२७
 


आजु लौं हौं कत नानाहन की नाहीं सुनि, नेह सों निहारि हेरि बदन निहोरतो।

चलन न देतो देव चंचल अचल करि, चाबुक चेतावनोन मारि मुंह मोरतो;

भारो प्रेम-पाथर नगारो दै. गरे सों बाँधि, गधाबर-बिग्द के बारिधि मैं बोरतो ॥१८॥

वैराग्य

बाग्यो बन्यो जरतारकोलतामहिं श्रोस कोहार तन्या मकीनेx, पानी मैं पाहन-पोत चल्यो चढ़ि, कागद की छतुरी सिर दाने$; काँख मैं बाँधि कै पाँख पतंग के देव सुसंग पतंग को लीने, मोम के मंदिर माखन को मुनिबैठ्योहुतासनानकीने+।।१६।। आवत आयु को द्यौप अथौत, गए रवि यों अधिगारिए ऐहै; दाम खरे दै ग्वरीदु खगे गुरु, मोह की गोनी न फेरि विकैहै। आध्यात्मिक छंद है।

® संसार को बड़ाइयाँ।

x माया।

$ जीवात्मा संसार में इसी प्रकार जाता है। पा पतिंगा के पंख बग़ल में बाँधकर उड़ना चाहते हैं सूर्य के निकट, किंतु वे जल जायेंगे। प्रयोजन,सांसारिक वस्तुओं की असारता के प्रदर्शन का है।

+ मोम का मंदिर संसार है, माखन का मुनि शरीर और हुताशन जीवात्मा।