देव छितीस की छाप विना, जमराज जगाती महादुखु दैहै; जात उठी पुर देह की पैंठी, अरे बनियै बनियै नहिं रहै।।२०।। देव प्राति-पंथा चीरि चीर गरे कंथा डारि ,
भसम चढ़ाय खान-पान हू न छूजिये; दूरि दुम्ब दुद गांख मुदरा पहिरि कान,
ध्यान सुंदरानन गुरू के पग पृजिए । शृंगा की टकी लगाय भृगीकोट+ कै मनु
बिरागिनि है बपु बिरहागिनि मैं भूजिए ; केलो तजि राधिका केली होय जोगिनि, तौ
अलख जगाय हेली चेलो चलि हूजिए।।२१।। राधिकाजी की वियोगिनी दशा की संभावना पर गोपियों का योग धारण करना वर्णित है।
कंथा = कथरी । दुद = उत्पात । शृगी = एक प्रकार का सींग का बाजा, जो प्रायःयोगियों के पास होता है। काम परयो दुलही भरू दूलह, चाका यार ते द्वार ही छूटे , माया के बाजने बाजि गए, परभात ही भातग्ववा उठि बूटे; आतसबाजो गई छिन में छुटि, देखि अजौं उठिकै अँखि फूटे , देव दिवैयन दाग बने रहे, बाग बने ते बरीठेई लूटे ॥२२॥
- चुंगी का अनसर।
+ बाज़ार ।
- मुद्रा, जो फ़क़ीर लोग कान में पहनते हैं।
$ टक, धुनि । + लखोरी । मन भुग-कीट-सा करके । ४ सखी, है अली।