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देव-सुधा


भृत्य

पावक मैं बसि आँच लगै न, बिना छत खोड़े कि धार पै धावै, मीत सों भीत,अभीतश्रमीत सों दुक्ख सुखी, सुखमैं दुखपावैछ; जोगी है प्राठ हू जाम जगै, अठजामनिकामनि सौं मनु लावै, आगिलो पाछिलोसोविसबैफ कृत्य करै तब भृत्य कहावै ।।२३।।

(३)
विविध वर्णन

निसि बासर मात रसातल लौंसम्मात घने धन बंधन नाखको, ब्रज गोकुल ऊ ब्रजगोकुल ऊपरज्यों पाज्योपरलौमुखभाख्योx, करुना कर त्यौं वर सैल लियो काना करिकेबरसैंअभिलाख्यो, मुर को नकहूँ मुरकोरिपुरीअँगुरी न मुऱ्या अँगुरी पर राख्यो ।

गोवर्धन-धारण का वर्णन है। रसातल = पृथ्वी-तल पाँचवाँ लोक। बंधन नाख्यो = बंधन तोड़ दिए, अर्थात् अतिवृष्टि की मर्यादा भंग कर दी । ब्रज-गोकुल = व्रज की गायों का वंश तथा ब्रज के गोकुल-ग्राम । मुर को रिपु री = एरी, मुरारि । मुयो = मुड़ा, हिला ।

® दुख में सुखी रहे और सुख में दुखी, अर्थात् सुख की यहाँ तक इच्छा न करे कि सुख से उसे दुख हो। इस छन्द में व्यंग्य द्वारा मालिकों की निन्दा की गई है जो नौकरों में ऐसे असंख्य गुण गण होने की इच्छा करते हैं।

+व्रज की प्रजा ने ज्यों ही अपने मुख से यह कहा कि ब्रज गोकुल ग्रामों तथा व्रज के गो-वंश पर प्रलय पड़ी, त्यों ही करुणाकर भगवान् ने श्रेष्ठ पहाड़ करुणा करके उठा लिया, तथा यह अभि- लाषा की कि अब धन और भी बरसे।

x इस पद का पाठांतर ऐसा भी है- 'करुनाकर त्यों कर सैल लियो करुना करिकै करसै अभिलाख्यो।' इस दशा में अर्थ यह आवेगा कि हाथ में सैल लेकर उसे खींचने की इच्छा की ( अर्थात् खींचा), और तब ज़रा भी न मुरककर उँगली पर रख लिया।