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देव-सुधा
 


खेलतु खिलैया ख्यालु थाकि न थिरातु कालु माया गुन जालु अदभुत इद्रजालु है ॥ ३० ॥

एक होत इंद्र, एक सूरज औ, चंद्र, एक होत हैं कुबेर कछु बेर देत नाया के ;

अकुल कुलीन होत, पामर प्रबोन होत, दोन होत चक्कवै चलत छत्र छाया के।

संपति-समृद्धि, सिद्धि निद्धि. बुद्धि-बृद्धि सब भुक्ति-मुक्ति पौरि पर परी प्रभु जाया के ;

एक ही कृपा-कटाच्छ कोटि यच्छ रच्छ नर पावै घरबार दरबार देवमाया के ॥ ३१॥ पॉवर = पामर, नीच । चक्कवै = चक्रवर्ती राजा। पौरि पर = दरवाजे पर । समृद्धि = ऐश्वर्य । भुक्ति = भोग। तार मृदंग महारव सौं भनकारत झाँझन के गन जामें , गुंजत ढोल कदंबक पुंज कुलाहल काहलो नादति तामें ; भेरी घनेरी नरी सुरनारिनरीसुर नारि अलापी सभा में , गाजत मेघ घने सुर लाजत बाजत माया के द्वार दमामें॥३२॥

  • कदंबक = समूह।

+ ढोल-पुज गुजत, कुलाहल होत, तामैं कदंबक काहला नादति । काहला ='अप्सरा।

  • घनेरी भेरी, नरीसुर ( नली से बजनेवाले बाजे), न अरि

(हित) नरीसुर नारि सभा मैं अलापी।