भंग के न रंग दे भगीरथ को गंग उत-
मंग जटा राखत न राख तन खोज के।
देव न बियोगी अब योगी ते स योगी भए, भोगी भोग अंक परजंक चितचोज के +;
ब्याल गज-खाल मुंड-माल औ' डमरु डारि ढ रहे भ्रमर मुख सुंदर सरोज के ॥ ४३ ॥
भोगी = सर्प । भोग = फण । चितचोज के = चित्त को चकित करनेवाला।
अनुराग के रंगनि रूप तरंगनि अंगनि ओप मनौ उफनी, कबि देव हिये सियरानी सबै सियरानी को देखि सुहागसनी; पर धामन बाम चढ़ी बरस मुसुकानि सुधा घनसार घनी , सखियान के आनन-इंदुन ते अग्वियान की बंदनवार तनी॥४४॥
ओप = आभा। सियरानी = जुड़ानी, प्रसन्न हुई। घनसार =कपूर। उफनी =बढ़ी, उफनाई।
- भाँग का मज़ा छोड़ तथा भगीरथ को गंगा देकर न तो
उत्तमांग ( शिर) में जटा रखते हैं, न शरीर में भस्म का खोज (पता)।
+ देव कवि कहता है कि शिव वियोगी नहीं हैं, क्योंकि वह अब योगी से संयोगी हो गए हैं, अथच शरीर में सर्प का भोग ( संसर्ग) जो था, उसके स्थान पर चित्त प्रसन्न करनेवाली शय्या है। कवि ने इस छंद में प्रेम से जीवन में जो परिवर्तन होता है, उसका फल शिव-से महायोगी पर दिखलाया है।