सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
५३
देव-सुधा


अंगन उघारौ जनि . लंगर लगेई माँग- मोती-लर टूटत लरकि आई लुरकी ;

देव कर जोरि कर अंचर को छोर गहि. छाती मुठि छूटति न नीठि ठनि ढुरकी।

आँसू दृग पूरि भ्रमपूर चकचूर हे का कहति प्यारी दोऊ भुज दीने श्रोट उर की;

मरी जाति लाजन अकाजन करैया देया, छाँड़ि दे अनोखे नाँह, बाँह जाति मुरकी ॥ ६१ ॥

लंगर = नायक के लिये संबोधन, हे ढीठ छैल । लरकि आई = लटक आई। लगेई माँग मोती = माँग में मोती लगे हुए हैं । लुरकी =माँग में लटकनेवाला मोती का ज़ेवर। ढरकी = भरनी, जुलाहों का एक औज़ार, जिससे वे लोग बाने का सूत फेकते हैं। छाती मुठि छूटति न नीठि उनि ढरकी = आपकी मुठि ( मूठ) कठिनता से भी छाती से नहीं छूटती; भरनी की तरह इधर-उधर पाती-जाती है ।

उनि ढुरकी = ठनकर ( कार्य में रत होकर ) मानो ढरकी हो गई। प्रयोजन यह है कि भरनी के समान कार्य करती है।

रच्यो कचौरसुमोर पखा रिकाक-पखा मुख राखि अराला, धरी मुरली अधराधर लै मुरली सुर लीन है देव रसाल ; पितंबर काछनी पीत पटी धरि बालम बेष बनावति बाल , उरोजन खोज निवारन की उर पैन्ही सरोजमई मृदुमाल॥६२॥

  • पूरे विभ्रम में चकनाचूर होकर।

+ कुटिल।