नायिका नायक (कृष्ण) का वेश धारण करके विनोक्न करती
है । छंद के चतुर्थ चरण में सामान्य अलंकार है।
कच = केश। काक-पखा = काक-पक्ष = कुल्लैं।
सुनि कै धुनि चातकमोरनि की चहुँ ओर न कोकिल कूक नि सों, अनुराग-भरे हरि बागनि मैं सखि रागत गग अचूकनि सों; कबि देव घटा उनई जु नई बनभूमि भई दल दूकनि सों, रंगराती हरी हहराती लता कि जाती समीर के झूकनिसों॥६३।।
पावस-ऋतु का वर्णन है।
अचूकनि सों = पटुता-सहित । उनई = उदित हुई । दू कनि = दो-एक । हहराती = ध्वन्यात्मक शब्द ।
पावस प्रथम पिय ऐबे को अवधि सौ जो, आवत ही प्रावै तो बुलाऊँ अति आदर निकै
नाहीं तौ न हील होन दे । झोल झाबरनि, ग्रीषमहि राखु खाली भाखु खल खादरनि ।
बीजुरी बरजु, कहु मेघ न गरजु, इन गाजमारे मोर - मुख मोरि री निरादरनि;
कंठ रोकि कोकिलनि, चोच नोचि चातकनि, दूरि करि दादुर, बिदा करि री बादरनि ।। ६४ ॥
- पहले ही पावस में प्रियतम के आने की अवधि थी। सो
यदि पावस के आते ही वह भी आवें, तो पावस (वर्षा) को भारी आदर से बुलाऊँ । खादर खल इस कारण से कहे. गए हैं कि उनके कारण बुखार बढ़ता है, तथा अन्य कष्ट होते हैं।