पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
५४
देव-सुधा


नायिका नायक (कृष्ण) का वेश धारण करके विनोक्न करती है । छंद के चतुर्थ चरण में सामान्य अलंकार है। कच = केश। काक-पखा = काक-पक्ष = कुल्लैं।

(९)
पावस

सुनि कै धुनि चातकमोरनि की चहुँ ओर न कोकिल कूक नि सों, अनुराग-भरे हरि बागनि मैं सखि रागत गग अचूकनि सों; कबि देव घटा उनई जु नई बनभूमि भई दल दूकनि सों, रंगराती हरी हहराती लता कि जाती समीर के झूकनिसों॥६३।।

पावस-ऋतु का वर्णन है।

अचूकनि सों = पटुता-सहित । उनई = उदित हुई । दू कनि = दो-एक । हहराती = ध्वन्यात्मक शब्द ।

पावस प्रथम पिय ऐबे को अवधि सौ जो, आवत ही प्रावै तो बुलाऊँ अति आदर निकै

नाहीं तौ न हील होन दे । झोल झाबरनि, ग्रीषमहि राखु खाली भाखु खल खादरनि ।

बीजुरी बरजु, कहु मेघ न गरजु, इन गाजमारे मोर - मुख मोरि री निरादरनि;

कंठ रोकि कोकिलनि, चोच नोचि चातकनि, दूरि करि दादुर, बिदा करि री बादरनि ।। ६४ ॥

  • पहले ही पावस में प्रियतम के आने की अवधि थी। सो

यदि पावस के आते ही वह भी आवें, तो पावस (वर्षा) को भारी आदर से बुलाऊँ । खादर खल इस कारण से कहे. गए हैं कि उनके कारण बुखार बढ़ता है, तथा अन्य कष्ट होते हैं।