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देव-सुधा

जात (रूपी सुंदरी ) से क्यों विमुख होता है, जब तूने उससे हीन-तर अंबकुल, बकुल श्रादि को पसंद किया ही है ?

(१६)
संक्षिप्त गुण

कीच के बीच रह चुरियाँ कुल-सी उमड़ी तुलसी बन लूनो , देव सिढ़ी जमुना सिढ़ियै चढ़ि दीन्हो मनोरथ को हम चूनो ; बीच खगै खग कंट क लै सुतौ कंटक ई नहिं आवत ऊनो , पापन चाव वितै चिन की गति देहहु के दुम्ब मैं सुग्व दूनो।।११०॥ इस छंद के विषय में देवजी ने स्वयं यह दोहा लिखा है-

सकल लच्छना-भेद बर और ब्यंजना-भेद , तातपर्य प्रगटत तहाँ दुख के सुख सुख खेद ।

इस छंद को देव ने लक्षणा-व्यंजना के सकल भेदों के संकर उदाहरण में दिया है। इसका शब्दार्थ लेने से अर्थ न बनेगा, क्योंकि स्वयं कवि ने इसे आध्यात्मिक अर्थ में लिखा है ।

संसार मानो कीच है (क्योंकि उसमें बुराई बहुत है ), जिसमें दुर्वासनाएँ (चूड़ी से दुर्वासनाएँ व्यंजित की गई हैं ) प्रबला ( रहती ) हैं, तथा कुल के समान उमड़ी हुई तुलसी (सुवासनाओं) का गहन वन कटा पड़ा है। देव कवि कहता है कि यमुना जो स्वर्ग की सीढ़ी है, उस पर (घाट की) सीढ़ियों से चढ़कर मैंने मनोरथों को चूना दे दिया (चुनौती दी, ललकार दिया)। इतना करने पर भी बीच में खग (जीवात्मा) कंटक होकर खगता (चुभता) है, और वह कंटक ही कम किया नहीं होता (सांसारिक बखेड़े छोड़े नहीं छूटते)। जब चित्त की गति पर ध्यान देता हूँ, तब उसमें पापों का च प पाता हुँ, किंतु जब तपादि दैहिक कष्टों पर विचार करता हूँ, तब अंत