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देव-सुधा

में उस दुःख में दूना सुख देख पड़ता है, क्योंकि उनसे मुक्ति प्राप्त होती है, जो वास्तविक सुख है । खग के उपयुक्त अर्थ में जीवात्मा शुद्ध निर्विकार अामा के लिये कंटक माना गया है । यह भी कहा जा सकता है कि बीच में खा के साथ खा कंटक है, अर्थात् परमात्मा के साथ जीवामा कंटक-रूपी है। यथा "टा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृहं परेवघजाने । तपारन्यः पिपतं स्वाद्वयनश्न मन्यो अभि-चाकमोति" (मुंडरू पनिषत् )। दो पक्षो संयोगी मित्र एक वृक्ष पर स्थित हैं । उनमें एक पीपल को स्वाद से खाता है, न खाता हुआ दूसरा प्रकाशमान है। यहाँ खानेवाला पक्षी जीवात्मा है, और न खानेवाला परमात्मा । इसी भाव को कवि ने तीसरे चरण में कुछ-कुछ व्यंजित किया है । इस छंद में लक्षणा और व्यंजना के सब उदाहरण निकलते हैं । यह देव की रचना में संक्षिप्त गुण का अच्छा उदाहरण है।

'तुलसी बन लूनो' में उपादान लक्षणा है, क्योंकि वन श्राप-से- आप नहीं करता है, वरन् उसे कितो ने काटा है। 'र₹ चुरियाँ' में लक्षण लक्षणा है, क्योंकि चुरियाँ नहीं रटतीं, वरन् उनके हिलने से शब्द सुन पड़ता है । 'यमुना सिढ़ियै चदि' में शुद्ध सारोपा लक्षणा है, क्योंकि समता के कारण यमुनाजी सीढ़ी कही गई हैं। कीच को संपार कहना शुद्ध साध्यवसान लक्षणा है, क्योंकि समता के कारण संसार का नाम न लिया जाकर वह कीच ही कहा गया है । 'खग कंटक है खगै' में गुण देखकर खग कंटक कहा गया है, सो गौणी सारोपा लक्षणा है। गुणों के कारण दुर्वासना को चूड़ी और सुबासना को तुलसी कहना गौणी साध्यवसान के उदाहरण हैं: मनोरथ को चूना (चुनौती ) देना रूढ़ि लक्षणा का उदाहरण है, और ऊपर जो अन्य छ भेद दिखलाए गए हैं, वे प्रयोजनवती के हैं। देव ने गौणो लक्षणा को मीलित कहा है।