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देव-सुधा

में कुछ विशेषता से होता है। विशेष विलास में विलास हाव मिला । ( ३ ) लघुभूषण से विक्षिप्त-हाव हुश्रा । (४) विपरीत भूषण से विभ्रम-हाव आया । ( ५ ) 'भै रसरास हँसी रिस हू रस' में कई भाव मिलने से किन केंचित-हाव प्राप्त हुआ। ( ६ ) सुव का दुव के समान मानने में कुमित-हाव प्रकट है। (७) भौंहों द्वारा देखने में भविष्य में भी दरस-कामना प्रबला होने के कारण मोट्टायत-हाव हुआ । (८) रिस से पति का अनादर व्यंजित है, जिससे बिनाक-हाव आया । (६) रूप का भार नायिका पर है, अर्थात् रूप ही उसका पूर्ण श्राभरण है, जिससे आभरण-बाहुन्य का विचार पाने से ललित-हाव निकला। (१०) 'भै रसरास' में रास के रस में भय लगा रहने के कारण उसमें अपूर्णता का अभिप्राय व्यंजित हुआ, जिससे विहित-हाव । आया।

छंद का अर्थ सुगम है। तृतीय चरण में भय इस कारण है कि कोई विहार-क्रीड़ा देख न ले। रस, रास और हंसी विलास- क्रीड़ा में :स्वाभाविक हैं । रिस मान के कारण हुई, और उसके पीछे मान-मोचन से फिर से रस हो गया । नायिका विलास-क्रीड़ा में इतनी प्रसन्न है कि उसके लिये तसंबंधी दुःख और सुख प्रायः सम हो रहे हैं। दुःव का श्राभास प्रकट में 'नाही' आदि कहने से होता है, और सुख प्रकट विलास-कामना से ।

चतुर्थ चरण में 'भटू'-शब्द 'बधू' का अन्य रूप है, और स्त्री के लिये एक आदर-सूचक संबोधन है।

बेरागिनि कीधौं अनुरागिनि सोहागिन तू . देव बड़भागिनि ल जाति औ' लति क्यों ;