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देव-सुधा

सोपति जगत प्रासाति हखाति अन- खाति बिल खाति दुख मानति डरत क्यों।

चौंकति च कति उचति औ' बकति विथ- कति औ' थकति ध्यान धीरज धरति क्यों ;

मोहति मुरति सतगति इतराति साह- चरज सराहि पाहचरज मरति क्यों ॥ ११२ ॥

हरखाति = हर्षित होती है । अनखाति = क्रोध करती है। यह 'अनखाना'-शब्द से बना है । सतराति = अप्रसन्न होती है।

इस कवित्त में तैंतीस संचारी भावों के उदाहरण सूक्ष्म रूप से दिए गए हैं। इसकी टीका स्वयं देवजी ने 'शब्द-रसायन' में यों लिखी है-

बैरागिनि निबेद उग्रता है अनुरागिनि ; गर्व सोहागिनि जानि भाग मदते बड़भागिनि। लज्जा लजति अमर्ष लरति सोवति सुनींद लहि; बोध जगति अालस्य अलस हर्षति सुहर्ष गहि ।

'अनखाब असूया ग्लानि श्रम बिलख दुखित दुख दीनता; संका डराति चौंकति असति चकित अपस्मृत लीनता ॥ १ ॥

उचकि चपल आवेग ब्याधि सों बिथकि सुब्रीडति ; जड़ता थकित सु ध्यान चित्त सुमिरन धरि धीरति । मोह मोहि अवहित्य मुरति सतरानि उग्रगति ; इतरै बो उन्माद साहचर्य सराह मति ।

अरु आहचर्य बहुतर्क करि मरन संभ मूरछि परति ; कहि देव देव तैंतीस हू संचारिन तिय संचरति ॥ २ ॥