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देव-सुधा

बिमल है मलिन ससंक बंक सलज सिथिल दीन सालस सक्ति सँभरति है;

मद उनमाद धीर चपल अमर्ख हर्ख , नींद जाय स्वपन बितक बिसुरति है।

ब्याधि गर्ब उग्र उतकंठा दुख आवेग, अचल वच खोट सबै जानति डरति है;

मोहति मुरति आँसू स्वेद थंभ पुलक, बिबर्न स्वरभंग कपि मूरछि परति है ।। ११३ ।।

इस छंद में विविध भावों का फल शरीर पर कथित होकर संचारी भावों की मुख्यता है। वियोग शृंगार का कथन है।

सालस = आलस्य-सहित । अमर्ख (अमरख; अमर्ष) = क्रोध । बितर्क = विचार । बच खोट = बुरे वचन । बिबर्न = रूपांतर ।

नीचे को निहारत नगीचे नेन अधर दुबीचे दब्यो स्यामा अरुनाभा अटकन को;

नील मनि भाग ह्वे पदुमराग है के पुखराग है रहत बिध्यो छुवै निकट कन को ।

देवजू हँसत दुति दंतन मुकुत जोति , बिमल मुकत हीरा लाल गटकन को ;

थिरकि-थिरकि थिरु थाने पर तान तोरि, बाने बदलत नट मोती लटकन को॥११४ ॥

लटकन के मोती का वर्णन है । इस छंद में मीलित अलंकार की बहार है । अरुनाभा (अरुण + आभा) = लाल छटा; लटकन