देव और विहारी नचै मिलि बेलि-बधूनि, बेच रसु,"देव" नचावत आधि अधीर तिहूँ गुन देखिए, दोष-भरे अरे ! सतिल, मंद, सुगध समीर ! संयोगियों के उर-शल्य का तू हरण करता है ; क्या यह अच्छा काम है ? वियोगियों के हृदय में पीड़ा उपस्थित करता है; क्या तुझे यह उचित है ? अपने शीतलता-गुण से तू दोनों ही को सताता है। कलियों को विकसित करके तू मद-पान करता है। यह कैसा नीच कर्म है ? उधर मार्ग में भ्रमर इतने उड़ा देता है कि चलना कठिन हो जाता है । तेरी मंद चाल का यह फल भी दुःखद ही है। रस-आचमन के पश्चात् तू लताओं में नाचता फिरता है और धी- रज छुटानेवाली पीड़ा उत्पश करता है। यह सब तेरी सुगंध के कारण होता है। तू बड़ा ही निर्लज-नीच है । तेरे तीनों ही गुण दोषों से भरे हुए हैं। (६) "अरी लजा, तू वास्तव में मेरा अकाज करनेवाली हो रही है। चुपके-चुपके ही तू मेरे और प्राण-से प्राणपति के बीच अंतर डाले रखना चाहती है। तेरी भौंह सर्वत्र ही चढ़ी रहती है। सुझे लज्जा भी नहीं लगती कि तू यह कैसा नीच कर्म कर रही है? अरे ! घड़ी-भर के लिये तो तू दुख-सुख में मेरी शरीकदार (सरीकिन) हो जा । श्यामसुंदर को 'डोठि भरकर' देख तो लेने दे।" इस प्रकार का हृदय-तल को हिला देनेवाला कथन देव-सदृश कवियों के अतिरिक्त और कौन कर सकता है ? शुद्ध-स्वभावा स्वकीया लज्जा-वश अपने प्रिय- तम का मुख नहीं देख पाती है। लाख-लाख साहस करने पर भी लज्जा उसका बना-बनाया खेल बिगाड़ देती है। तब मुँझलाकर वह लज्जा ही को (मानो वह कोई चैतन्य जीव हो) भला-बुरा कहने लगती है- प्रान-से प्रानपती सों निरतर अतर-अंतर पारत हे री; "देव' कहा कही बाहेर हू घर बाहेर हू रहौ भौंह तरेरी ।
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