११३ काव्य-कला-कुशलता लाज न लागति लाज अहे ! तुहि जानी मै आजु अकाजिनि मेरी; देखन दै हरि को भरि डीठि घरीकिनि एक सरीकिनि मेरी ! संपूर्ण छंद में वाचक-पात्र, 'प्रान-से प्रानपती' में लुप्तोपमा एवं स्थल-स्थल पर यमक और वृत्यानुप्रास का सुष्टुन्यास दर्शनीय हो रहा है। इसी प्रकार देवजी ने प्रियतम की जानकारी को जीवित मूर्ति मान उसकी फटकार की है। नायिका को जानकारी के कारण ही दुःख मिल रहे हैं । सारी शरारत जानकारी ही की है। बस इसी श्राशय को लेकर नायिका कहती है- होतो जो अजान, तो न जानतो इतीक बिथा ; __मेरे जिय जानि, तेरो जानिबो गरे परथी । मन का अपनी इच्छा के अनुसार न लगना भी देवजी को सहन नहीं हो सका । जो मन अपने काबू में नहीं है, वह अपना किस बात का, यह बात देवजी ने बड़े अच्छे ढंग से कही है- ___ काहे को मेरे कहावत मेरो, जुपै मन मेरो न मेरो को करै ? देव-माया-प्रपंच नाटक में बिगड़े हुए दुलारे लड़के से मन की उपमा खूब ही निभी है। (७) "रस के प्रधान मनोविकार को साहित्य-शास्त्र में स्थायी भाव, उसके कारण को विभाव, कार्य को अनुभाव और सहकारी मनोविकार को संचारी वा व्यभिचारी भाव कहते हैं।" "रस को विशेष रूप से पुष्टकर जल-तरंग की नाई जो स्थायी भाव में लीन हो जाते हैं, उन्हें व्यभिचारी भाव कहते हैं।" ( रस-वाटिका ) व्यभिचारी भावों की संख्या तेतीस है। इन तेंतीसों व्यभिचारी भावों के उदाहरण साहित्य-संबंधी ग्रंथों में अलग-अलग उपलब्ध है, परंतु कविवर देवजी ने एक ही छंद में इन सबके उदाहरण दे दिए हैं और चमत्कार यह है कि संपूर्ण छंद में एक उत्तम भाव
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