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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१०८

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देव और विहारी भी अविकलांग रूप से प्रस्फुटित हो गया है । गर्व-स्वभावा प्रौढा 'स्वकीया की पूर्वानुराग वियोग-दशा का चित्र देखिए और तेंतीसों संचारी भी एकत्र मनन कीजिए- वैरागिनि किधौ, अनुरागिनि, सुहागिनि तू, "देव" बड़भागिनि लजाति औ लरति क्यों ? सोवति, जगति, अरसाति, हरषाति, अनखाति, बिलखाति, दुख मानति, डरति क्यों ? चौंकति, चकति, उचकति औ बकति, विथकति औ थकति ध्यान, धीरज धरति क्यों ? मोहति, मुरति, सतराति, इतराति, साह- चरज सराहै, आचरज मरति क्यों ? उपर्युक्त छंद में समुच्चय-अलंकार मूर्तिमान् होकर तप रहा है। "किधों" के पास बेचारे संदेहमान को भी थोड़ा स्थान मिल गया है । पर करामात है सारे संचारी भावों के सफल समागम में । देवजी ने इस अपूर्व सम्मिलन का सिलसिले- वार ब्योरा स्वयं ही दे दिया है, अतः पाठकों की जानकारी के लिये हम भी उसे ज्यों-का-त्यों, विना कुछ घटाए-बढाए, लिखे वैरागिनि निरवेद, उत्कठता है अनुरागिनि ; गर्व सुहागिनि जानि, भाग मद ते बड़मागिनि । लज्जा लजति, अमर्ष लरति, सोवाति निद्रा लाहि बांध जगति, आलस्य अलस, हर्षति सु हर्ष गहि । अनखाति असूया, ग्लानि श्रम विलख दुखित दुख दीनता; संकह डराति, चौंकति त्रसति, चकति अपस्मृति लीनता। उचकि चपल, श्रावेग व्याधि सों विथाक सुपरिति, जड़ता थकति, सु ध्यान चित्त मुमिरन धर धीरति ;