काव्य-कला-कुशलता मोह मोहि, अवाहित्थ मुरति, सतराति उग्र गति ; इतरैबो उन्माद, साहचरजै सराह मति । अरु आहचर्ज बहु तर्क करि, मरन-तुल्य मूरछि परति ; कहि "देव' देव तेंतीसहू सचारिन तिय सचरति । व्यभिचारी भावों का ज्ञान हुए विना देवजी का पांडित्य पाठक नहीं समझ सकेंगे। सो जो महाशय इस विषय को न जानते हों, वे पहले इसे साहित्य-ग्रंथों में समझ लें । तब उन्हें इसका आनंद मिलेगा। (८) श्रीकृष्णचंद्र की वंशी-ध्वनि का गोपियों पर जैसा प्रभाव पड़ता था, उसका वर्णन भी देवजी ने अपूर्व किया है- मंद, महा मोहक, मधुर सुर सुनियत, धुनियत सीस, बँधी बाँसी है री बॉसी है; गोकुल की कुलवधू को कुल सम्हारे ? नहीं ____ दो कुल निहार, लाज नासी है री नासी है। काहि धौं सिखावत ? सिखै धौ काहि सुधि होय ? सुधि-बुधि कारे कान्ह डॉसी है री डाँसी है; "देव" ब्रजवासी वा विसासी की चितौनि यह, गॉसी है री, हॉसी वह फाँसी है री फाँसी है । इतना ही क्यों- “जागि, जपि जीहै, बिरहागि उपजी है अब ? जी है कौन, बैरिनि बजी है बन बासुरी ? अनुमान ठीक भी निकला, क्योंकि- मीन-ज्यों अधीनी गुन कीनी, खैचि लीनी, ____ "देव" बसीवार बसी डारि बसी के सुरनि सो । यदि बंसी लगाकर पाठकों ने कभी मछली का शिकार किया है, तो वे उपर्युक्त भाव तुरंत समझ लेंगे । पर जो गोपियाँ
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