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देव और विहारी
इस प्रकार मीनवत् अधीन हो रही हैं, उनका घर से विह्वल होकर
भागना तो देखिए, कैसा सरस है-
घोर तरु नीजन विपति तरुनीजन है,
निकसी निसंक निसि भातुर, अतंक मैं :
गर्ने न कलंक मृदुल्कनि, मयंक-मुखी ,
पंकज-पगन धाई भागि निसि पंक मैं।
भूषननि भूलि पैन्हे उलटे दुकूल "देव", .
___ खुले भुजमूल, प्रतिकूल बिधि बंक मैं ;
चूल्हे चढ़े छाँड़े उफनात दूध भाँड़े ,
__उन सुत छाँड़े अंक, पति छाँड़े परजंक मैं ।
लीजिए, रास-विलास का भी ईषत् आभास ले लीजिए; तब
अन्यत्र सैर के लिये जाइए-
हौंही ब्रज, बृंदावन; मोही मैं बसत सदा
जमुना-तरंग श्याम-रंग-अवलीन की ;
चहूँ श्रोर सुंदर, सघन बन देखियत ,
कुंजनि में सुनियत गुंजनि अलीन की।
बंसीवट-तट नटनागर नटतु मो मैं ,
रास के विलास की मधुर धुनि बीन की ,
भरि रही भनक-बनक ताल-ताननि की
तनक-तनक तामें भनक चुरीन की।
प्रेमी की उपर्युक्त उक्ति कितनी सार-गर्भित है, सो कहते नहीं बन
पड़ता; मानो रास का चित्र नेत्रों के सम्मुख नाच रहा हो । शब्दों
के बल से हृदय पर इसी प्रकार विजय प्राप्त की जाती है।
(1) प्रेमोन्मादिनी गोपिका की करुणामय कातरोक्ति का
चित्रण देवजी ने बड़े ही अच्छे ढंग से किया है । एकांत-सेवन की
इच्छुक चबाइनों से तंग आकर गोपी जो कुछ कहती है, उस पर
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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/११०
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