काव्य-कला-कुशलता
देवजी ने प्रेम-रंग का ऐसा गृहरा छीटा दिया कि रंग फूट-
फूट निकला है। अर्थ में वह आनंद कहाँ, जो मूल में है ? अतः
वही पढ़िए-
बोरथो बंस-बिरद मै, बौरी भई बरजत ,
मेरे बार-बार बीर, कोई पास पैठो जनि;
सिगरी सयानी तुम, बिगरी अकेली हो ही ;
गोहन मै छॉड़ो, मोसो भौहन अमेठी जनि ।
कुलटा, कलकिनी हौ, कायर, कुमति, कूर ,
काहू के न काम की,निकाम याते ऐंठौ जनि ;
"देव" तहॉ जैठियत, जहाँ बुद्धि बढे; हो तो
बैठी हौ बिकल, कोई मोहि मिलि बैठो जनि ।
(१०) प्रिय पाठक, आइए, अब आपको देवजी की भाषा-
रचना और उसकी अनोखी योजना के फल-स्वरूप वर्षा में हिडोले
पर झूलते हुए प्रेमी-युगल का दर्शन करा दें। भाव ढूंढने के लिये
मस्तिष्क को कष्ट न उठाना पड़ेगा; शब्द आप-से-आप, वायु की
हरहराहट, बादलों की घरघराहट, झर-झर शब्द करनेवाली झड़ी,
छोटी-छोटी बूदियों का छिहरना, सुकुमार अंगों का हिंडोले पर
थर्राना और कपड़ों का फरफराना और लहराना सामने लाकर
उपस्थित कर देंगे। शब्दाडंबर नहीं है, पर शब्दों का निर्वाचन
निस्संदेह ला-जवाब है-
सहर-सहर सोधो, सीतल समीर डोलै ,
घहर-हर घन घेरिकै घहरिया ।
भहर-झहर झुकि भीनी झरि लायो "देव",
छहर-छहर छोटी बूंदनि छहरिया ।
हहर-हहर हँसि-हसिक हिंडोरे चढ़ी ,
थहर-थहर तनु कोमल थहरिया ,
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१११
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