पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/११३

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११६ काव्य-कला-कुशलता (२) गोप-वधू दहेड़ी उतारने चली । दधि-पात्र छीके पर रक्खा था। छीका उतारने को ग्वालिन ने अपने दोनों हाथ उठाए और छीके का स्पर्श किया । गोप-वधू का इस अवसर का सौंदर्य-चित्र कविवर विहारीलाल ने चटपट खींच लिया। कुछ समय तक उसी प्रकार खड़ी रहने की ग्वालिन के प्रति कवि की आज्ञा कितनी विद- ग्धता-पूर्ण है ? स्वभावोक्ति का सामंजस्य कितना सुखद है ? अहे ! दहेड़ी जनि छुवै, जनि तू लेहि उतारि ; नीके ही छीको छुयो, वैसे ही रहु नारि ! (३) कहते हैं, वैर, प्रीति और ब्याह समान में ही फबता है । सो हलधर के वीर (कृष्ण, बैल) और वृषभानुजा ( राधा, गाय) की प्रीति समान ही है-कोई भी घट-बढ़कर नहीं है। कवि आशी- र्वाद देता है कि यह जोड़ी चिरजीवी (चिरंजीवी वा तृण चरकर जीवन-यापना करनेवाली) बनी रहे । स्नेह (प्रेम तथा घृत ) भी खुब गंभीर उतरे । कैसी रसीली चटकी है- चिरजीवी, जोरी जुर, क्यो न सनेह गंभीर ? को घटि ? ये बृषभानुजा. वे हलधर के बीर । वृषराशि-स्थित भानु की तीक्ष्णता तथा हलधर का क्रोध प्रसिद्ध ही है, सो कवि ने श्लिष्ट शब्दों का प्रयोग बड़ी ही चतुरता के साथ किया है । सम का बड़ा ही समयोचित सनिवेश है। (४) कहते हैं, फारस का कोई कवि ब्रज में एक बालिका का "साँकरी गली में माय, काँकरी गड़तु हैं" वचन सुनकर भाषा की मधुरता से मुग्ध हो गया था-उसको अपने भाषा-संबंधी माधु- पॅचरँग बाँधनू बँधा हुआ सुदर रस-रूप लहरिया है; कुछ इंद्र-धनुष-सा उदय हुत्रा नवरतन-प्रभा-रॅग-भरिया है। आरी-सी धारी क्हर करें, प्यारे रस-रूप ठहरिया है; कहु अब क्या बाकी ताब रहै, जानी ने सजा लहरिया है।