१२२
देव और विहारी
के हृदय में गाँठ पड़ती है। सभी अन्यत्र हैं। असंगति का
मनोरम चमत्कार है-
दृग उरझत, टूटत कुटुंब, जुरत चतुर-चित प्रीति ;
परति गाँठि दुरजन-हिए, नई दई यह रीति ।
सचमुच विहारीलाल, यह 'नई रीति' है। पर आपका तागे का
उल्लेख न करना खटकता है।
() भुंग क्या गुंजार करते हैं मानो घंटे बज रहे हैं, मकरंद-
बिंदु क्या दुलक रहे हैं मानो दान-प्रवाह जारी है। तो यह मंद-मंद
कौन चला आ रहा है ? अरे जानते नहीं, कुंज से बहिर्गत होकर
कुंजर के समान यह समीर चला आ रहा है। कैसा उत्कृष्ट और
पवित्र रूपक है-
रनित भृग-घंटावली, भरत दान मधु-नीर ;
मंद-मंद आवत चल्यो कुजर-कुंज-समीर ।
(१०) नायिका के मुख मंडल पर केसर की पीली आड़
(लकीर) और लाल रंग की बिंदी देखकर कवि को चंद्र, बृहस्पति
और मंगल ग्रहों का स्मरण होता है । मुख-चंद्र, आड़( केसर)-
बृहस्पति और सुरंग-बिंदु-मंगल को एक स्थान पर पाकर कवि उस
योग को ढूँढ़ता है, जिससे संसार रसमय हो जाय । अाखिर उसे स्त्री-
राशि का भी पता चलता है । फिर क्या कहना है, लोचन-जगत्
सचमुच रसमय हो जाता है। रूपक का पूर्ण विकास इस सोरठे
में भी खूब हुआ है-
' मंगल बिंदु सुरग, मुख ससि, केसरि-आड़ गुरु ,
. एक नारि लिय सग, रसमय किय लोचन-जगत |
(११) कविवर विहारीलाल के किसी-किसी दोहे में अलंकारों
का पूर्ण चमत्कार दिखलाई पड़ता है । देखिए, आगे लिखे दोहे
में उनका षोड़श-कला-विकास कैसा समीचीन हुआ है-
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/११६
Jump to navigation
Jump to search
यह पृष्ठ शोधित नही है
