पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/११८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१२४ देव और विहारी मानहुँ तन-छबि अच्छ को स्वच्छ राखिबे काज, दृग-पग पाछन को किए भूषण पायंदाज । देखा, विहारीलालजी इन कृत्रिम आभूषणों के विषय में क्या कहते हैं ? अस्तु । हम कविता-कामिनी की सहज-सुंदरता को अर्था- लंकारों में पाते हैं । अर्थालंकारों की सहज झलक कविता-कामिनी के अपार सौंदर्य को प्रकट करती है । हर्ष की बात है, विहारीलाल के इस दोहे में हम-जैसे अल्पज्ञ को भी एक-दो नहीं, १६ अलंकार देख पड़ते हैं। अब हम उन सबको क्रम से पाठकों के सामने उपस्थित करते हैं। संभव है, इनमें अनेकानेक अलंकार ठीक न हों; पर पाठकों को चाहिए कि जिन पर उन्हें संदेह हो, उन्हें वे पहले भली भाँति देख लें और फिर भी यदि वे ठीक न जचें, तो वैसा प्रकट करने की कृपा करें। दोहे का स्पष्टार्थ यह है कि किसी नायिका को किसी नायक ने प्रसाद-स्वरूप एक माला दी । माला पाने से नायिका का शरीर कदंब के समान फूल उठा अर्थात् उसे रोमांच हो पाया। इसी को लक्ष्य करके नायिका की सखी उससे कहती है कि हे बाले, मैंने यह तेरी अपूर्व भक्ति जान ली है। ये वचन नायिका के प्रति नायक के भी हो सकते हैं। उपर्युक्त अर्थ का अनुसरण करते हुए दोहे में निम्नलिखित अलं- कार देख पड़ते हैं- (१) "मैं यह तो ही मैं लखी भगति अपूरब बाल" का अर्थ यह है कि ऐसी भक्ति और किसी में नहीं देखी गई है अर्थात् इस प्रकार की भक्ति में 'तेरे समान तू ही है, जिससे इसमें 'अनन्वया- लंकार हो गया। (२) एक मालामान के मिलने से सारे शरीर का मालावत् (कंटकित) हो जाना साधारण भक्ति से नहीं होता। "अपूरब भक्ति"