काव्य-कला-कुशलता १२५ ही से होता है अर्थात् अपूर्व साभिप्राय विशेषण है। अतएव 'परिकरालंकार हुआ। (३) "मैं यह तो ही मैं लखी" स्पष्ट सूचित करता है कि इस नायिका के अतिरिक्त और किसी नायिका में ऐसी भक्ति नहीं पाई जाती है अर्थात् सब कहीं इस गुण का वर्जन करके वह इसी नायिका में ठहराया गया, जिससे 'परिसंख्या' हुई। (४) सारे शरीर के कदंबवत् फूल उठने के लिये ( रोमांच हो जाने के लिये) केवल एक प्रसाद-माला की प्राप्ति पर्याप्त कारण न था, तो भी शरीर कंटकित हुआ. अर्थात् अपूर्ण कारण से पूर्ण कार्य हुा । यह 'द्वितीय विभावना' का रूप है। (१) प्रसाद में माला प्रायः भगवनकों को दी जाती है, जिससे भक्ति की वृद्धि होकर विषय-वासनाओं से चित्त हट जाता है। परंतु नायिका को जो माला मिली है, उससे इस ओर उसका अनुराग और बड़ा है अर्थात् कार्य कारण के ठीक विपरीत हुआ। इससे यह 'छठी विभावना' हुई। (६) माला मिलने से नायिका का शरीर भी मालावत् हो गया । मालावत् होना माला का गुण है। वही अब शरीर में प्रारो- पित हुआ है अर्थात् कार्य ने कारण का गुण ग्रहण किया, जिससे 'द्वितीय सम' हुआ। (७) नायिका को माला मिली । यह उसके लिये गुण था; परंतु उसके मिलने से शरीर रोमांचित हुआ, जिससे उसका अनु- राग सखी पर लक्षित हो गया । अतः यह बात उसके लिये दोष हो गई। इस प्रकार गुण से दोष हुआ, जिससे लेशालंकार' हुश्रा। पर यदि रोमांच का होना नायक को मालूम हुआ है, तो यह उसके लिये गुण ही है अर्थात् गुण से गुण यह भी 'लेश' ही रहा।
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