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देव और विहारी

(८) दोहे से साफ़ झलकता है कि सखी या नायक नायिका को यह इंगित कराता है कि तुम्हारा अनुराग विदित हो गया है। परंतु यह कार्य 'भगति अपूरब', 'लहि प्रसाद-माला जु भो तन कदंब की माल' आदि छल-वचनों से पूरा किया गया है, जिससे यह 'पिहित-अलंकार' भी हुआ। किसी के मन की बात जानकर उसे युक्ति से इंगित करा देना पिहित है।

(९) जिस प्रकार पिहित हुआ, उसी प्रकार 'पर्यायोक्ति' भी होती है; क्योंकि सखी या नायक ने यह स्पष्ट नहीं कहा कि तम्हें रोमांच हुआ है, बरन् रोमांच का पर्याय 'तन कदंब की माल' कहा और इंगित करा दिया कि उसका अनुराग प्रकट हो गया है। यह रूप 'द्वितीय पर्यायोक्ति' का है।

(१०) शरीर में माला धारण करना एक कारण था। इससे सारे शरीर का माला होना (कंटकित होना) तादृश कार्य हुआ। कार्य और कारण की ऐसी समानता होने से यह 'हेतु-अलंकार' भी हुआ।

(११) माला शरीर की शोभा बढाती है; परंतु सखी के समीप उसी माला के पहनने से लक्षिता नायिका को लज्जित होना पड़ा, क्योंकि रोमांच होने से उसका अनुराग प्रकट हो गया। इस प्रकार 'हितकारी वस्तु से अहित हुआ।' अतएव 'तुल्ययोग्यता का दूसरा रूप' हो गया।

(१२) माला पहनने से शरीर ने अपना पूर्व रूप शरीरत्व छोड़कर माला-रूप धारण किया। अतएव 'तद्गुण' भी स्पष्ट हो गया।

(१३) इसी प्रकार शरीर, माला का साथ पाकर, उसी के समान शोभित हुआ अर्थात् संगति का गुण आया। इससे 'अनुगुन' भी हुआ।